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तृतीय भाग प्रार्थना और ध्यान
प्रार्थना और ध्यान
यह संचयन माताजी की पुस्तक ' प्रार्थना और ध्यान ' में से केवल उन प्रार्थनाओं को लेकर किया गया है जिनका अनुवाद श्रीअरविन्द ने मूल फ्रेंच से अंग्रेजी में किया था ।
प्रार्थना और ध्यान
२ नवंबर १९१२
हे परमोच्च स्वामी, जो सभी वस्तुओं में जीवन, प्रकाश और प्रेम है, यद्यपि सिद्धांत रूप में मेरी सारी सत्ता तुझे समर्पित है, फिर भी इस समर्पण को विस्तार में कार्यान्वित करना मुझे कठिन लगता है । मुझे यह जानने में कई सप्ताह लगे कि इस लिखित ध्यान का कारण और उसका औचित्य इस तथ्य में है कि उसके द्वारा मैं प्रतिदिन तुझे संबोधित कर पाऊं । इस तरह मैं प्रायः तेरे साथ जो वार्तालाप किया करती हूं उसके कुछ अंश को भौतिक रूप दे सकूंगी । मैं तेरे सामने, जहांतक हो सके अच्छी तरह अपनी स्वीकारोक्ति को रख सकूंगी, इसलिये नहीं कि मैं सोचती हूं कि मैं तुझसे कुछ कह सकती हूं -क्योंकि तू स्वयं ही तो सब कुछ है, बल्कि इसलिये कि हमारे देखने और समझने का कृत्रिम ओर बाह्य तरीका- अगर यह कहा जा सके-तेरे लिये पराया है, तेरे स्वभाव से विपरीत है । फिर भी तेरी ओर मुड़कर, जब मैं इन चीजों पर विचार करते हुए जिस क्षण तेरे प्रकाश में अपने-आपको निमज्जित करती हूं, तो मैं थोड़ाथोड़ा करके उन्हें उस तरह देखने लगती हूं जैसी कि वे सचमुच हैं-उस दिनतक, जब अपने- आपको तेरे तादात्म्य में एक न कर लूं, जब मेरे पास तुझसे कहने के लिये कुछ भी न बचे, क्योंकि तब मैं तू बन जाऊंगी । यह वह लक्ष्य है जहां मैं पहुंचना चाहती हूं; मेरे सारे प्रयास इसी विजय की ओर अधिकाधिक अभिमुख होंगे । मैं उस दिन के लिये अभीप्सा करती हूं जब मैं '' मैं '' न कह सकूंगी, क्योंकि मैं '' तू '' होऊंगी ।
अभीतक दिन में कितनी बार मैं अपने कार्य तुझे अर्पित किये बिना ही किया करती हूं । मैं उसके बारे में तुरंत एक वर्णनातीत बेचैनी से अवगत होती हूं जो मेरे शरीर की संवेदनशीलता में हृदय की पडि द्वारा अकूइदत होती है । तब मैं अपनी क्रिया को अपने लिये ही वस्तुगत बना लेती हूं और वह मुझे बेतुकी, बचकानी या निन्दनीय मालूम होती है । मैं उसके लिये खेद करती हूं, क्षण भर के लिये दुःखी होती हूं, जबतक कि मैं तेरे अंदर डुबकी लगाकर, वहां एक बच्चे के विश्वास के साथ अपने-आपको खोकर, अपने अंदर और अपने चारों ओर की भूल- भ्रांति को ठीक करने के लिये तेरी ओर से आनेवाली आवश्यक प्रेरणा और शक्ति के लिये प्रतीक्षा न करूं-दोनों चीजों एक हैं क्योंकि अब 'द उस वैश्व ?? की सतत और यथार्थ. प्राप्त है जो सभी क्रियाओं की संपूर्ण पारस्परिक निर्भरता का निर्णय करता है ।
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३ नवंबर १११२
तेरा प्रकाश मेरे अंदर एक जीवनदायिनी अग्नि की तरह हो और तेरा दिव्य प्रेम मेरे अंदर प्रवेश करे । मैं अपनी पूरी सत्ता के साथ अभीप्सा करती हूं कि तू परम प्रभु और मेरे मन, हृदय और शरीर के स्वामी के रूप में राज्य करे; वर दे कि वे तेरे विनीत यंत्र और निष्ठावान सेवक बनें ।
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११ नवंबर १११२
कल मैंने उस अंग्रेज से जो तुझे बड़ी सच्ची इच्छा के साथ खोज रहा था, कहा कि मैंने तुझे निश्चित रूप से पा लिया है और हमारा ऐक्य निरंतर है । सचमुच जिस अवस्था के बारे में मैं सचेतन हूं वह ऐसी ही है । मेरे सभी विचार तेरी ओर जाते हैं, मेरे सभी कर्म तुझे ही अर्पित हैं । मेरे लिये तेरी उपस्थिति चरम, अविकार और अचल तथ्य है और तेरी शांति सदा-सर्वदा मेरे हृदय में निवास करती है । फिर भी मैं जानती हूं कि ऐक्य की यह स्थिति, कल जिसे पाना मेरे लिये संभव होगा उसकी तुलना में, तुच्छ और अस्थिर है और मैं अभी तक उससे दूर । निस्संदेह बहुत दूर हूं उस तादाक्य से जिसमें मैं पूरी तरह '' मैं '' के भाव को खो दूंगी, उस '' अहं '' को जिसका उपयोग मैं अब भी अपना भाव प्रकट करने के लिये करती हूं लेकिन जो हर बार कृत्रिम उपयोग होता है, मानों वह एक ऐसी परिभाषा हो जो उस विचार को अभिव्यक्त करने में असमर्थ है जो अभिव्यक्त होना चाहता है । मुझे यह मानव संपर्क के लिये अनिवार्य मालूम होता है लेकिन सब कुछ इसपर निर्भर है कि यह '' मैं '' किसे अभिव्यक्त करता है; और अब भी कितनी ही बार जब मैं इसका उच्चारण करती हूं तो मेरे अंदर से तू बोलता है क्योंकि मैं पृथक् होने का भाव खो चुकी हूं ।
लेकिन यह सब अभी भूण अवस्था में है और पूर्णता की ओर बढ़ता चलेगा । कैसा संतोषजनक आश्वासन है तेरी '' सर्वशक्तिमत्ता '' के अंदर शांत विश्वास में ।
तू सब कुछ है, सब जगह है सब में हे और यह शरीर जो कर्म करता ३९६ है, तेरा अपना शरीर है, उसी तरह जैसे यह दृश्य विश्व पूरी तरह से तू है; इस पदार्थ में, जो तू होते हुए भी तेरा तत्पर और स्वेच्छापूवक सेवक बनना चाहता है, तू ही है जो श्वास लेता है, सोचता है और प्रेम करता है ।
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२६ नवंबर १११२
मैं हर क्षण तेरी ओर कृतज्ञता-प्रकाशन के गीत कैसे न गाऊं! हर जगह और मेरे चारों ओर हर चीज में तू अपने- आपको प्रकट करता है और मेरे अंदर तेरी इच्छा और तेरी चेतना अपने- आपको अधिकाधिक स्पष्टता से प्रकट करती हैं । यहांतक कि मैं लगभग पूरी तरह '' मैं '' और '' मेरे '' का स्थूल भ्रम खो बैठती हूं । अगर उस महान् प्रकाश में, जो तुझे अभिव्यक्त करता है । कुछ छायाएं और कुछ त्रुटियां दिखायी दें, तो वे तेरे देदीप्यमान प्रेम की अद्भुत दीप्ति को लंबे समय तक कैसे सह सकेंगी? तू जिस तरह से उस सत्ता को गढ़ रहा है जो '' मैं '' थी; आज सवेरे उसकी जो चेतना मुझे प्राप्त हुई, मोटे तौर पर उसे यूं कहा जा सकता है कि वह एक बड़ा हीरा था जिसे नियमित ज्यामिति के आकारों में तराशा गया था, जो संसक्ति, दृढ़ता, शुद्ध स्वच्छता, पारदर्शकता की दृष्टि से तो हीरा था लेकिन अपनी तीव्र, सदा प्रगतिशील जीवन की दृष्टि से तेजस्वी, कांतिमय ज्वाला था, लेकिन वह था उससे भी कुछ अधिक, उस सबसे अधिक अच्छा था; बाहरी और भीतरी प्रायः सभी संवेदनों का अतिक्रमण हो गया और जब मैं बाहरी जगत् के साथ सचेतन संपर्क की ओर लौटी तो मेरे मन में केवल वही एक छवि बनी रही ।
तू ही अनुभूति को उर्वर, तू ही जीवन को प्रगतिशील बनाता है, तू ही प्रकाश के आगे अंधकार को निमिष मात्र में विलीन हो जाने के लिये बाधित करता है, तू ही प्रेम को उसकी सारी शक्ति प्रदान करता है, तू ही हर जगह जड़ पदार्थ को इस तीव्र और अद्भुत अभीप्सा मैं, अनंतता की इस लोकोत्तर तृषा में जगाता है ।
'' तू '' ही सब जगह और सदा; सार-तत्त्व और अभिव्यक्ति में, '' तेरे '' सिवा कुछ भी नहीं ।
हे छाया और भ्रम-भ्रांति घुल जाओ । हे दुःख-कष्ट, मुरझाते हुए अदृश्य हो जाओ । हे परम प्रभो, क्या तुम नहीं हो? ३९७ २८ नवंबर १९१२
क्या बाहरी जीवन, प्रतिदिन और प्रतिक्षण की क्रियाशीलता हमारे ध्यान और निदिध्यासन के घंटों का अनिवार्य पूरक नहीं है? और क्या हर एक को दिये गये समय का अनुपात उस अनुपात का ठीक चित्र नहीं है जो तैयारी के लिये किये गये प्रयास और उपलब्धि के बीच है? क्योंकि ध्यान, निदिध्यासन और ऐक्य प्राप्त परिणाम है-वह फूल है जो खिला है और दैनिक क्रिया- कलाप वह निहाई है जिस पर सभी तत्त्वों को शुद्ध और परिष्कृत होने के लिये बार-बार गुजरना होता है, निदिध्यासन से मिलनेवाले आलोक के लिये उन्हें नमनीय और परिपक्व बनाना होता है । इससे पहले कि बाह्य किया-कलाप पूर्ण विकास के लिये अनावश्यक बने, इन सब तत्त्वों को एक के बाद एक करके कुठाली में से गुजरना होगा । तब यह क्रियाशीलता तुझे अभिव्यक्त करने के साधन में बदल जायेगी ताकि चेतना के अन्य केन्द्र को भट्ठी और प्रदीप्ति के समान दोहरे कार्य के लिये जगाया जा सके । इसीलिये घमंड और आत्मसंतोष सबसे बुरी बाधाएं हैं । हमें बड़े विनीत भाव से अगणित तत्वों में से कुछ को गंधने और शुद्ध बनाने के छोटे -से-छोटे अवसर का लाभ उठाना चाहिये ताकि उनमें से कुछ को हम सुनम्य और निवैयक्तिक बना सकें, उन्हें अपने- आपको भूलना, आत्म-त्याग, भक्ति, कोमलता और सौम्यता सीखा सकें । और जब सत्ता के ये सब तरीके अभ्यासगत हो जायें तो मनन-चिंतन में भाग लेने के लिये और तेरे साथ परम एकाग्रता में एक होने के लिये वे तैयार होते हैं । इसलिये मुझे लगता है कि सबसे अच्छों के लिये भी काम लंबा और धीमा होगा और असाधारण परिवर्तन सर्वांगीण नहीं हो सकते । वे सत्ता के दिग्विन्यास को बदल देते हैं, वे उसे निश्चित रूप से सीधे रास्ते पर ले आते हैं परंतु सचमुच लक्ष्य पाने के लिये कोई भी व्यक्ति हर क्षण, हर तरह की अनगिनत अनुभूतियों से नहीं बच सकता ।
... हे परमोच्च प्रभो, जो मेरी सत्ता में और हर चीज में चमकता है, वर दे कि तेरा प्रकाश अभिव्यक्त हो और सबके लिये तेरी शांति का राज्य आये । * ३९८ दिसंबर १९१२
जबतक सत्ता का एक भी तत्त्व । विचार की एक भी लहर बाहरी प्रभावों के आधीन है, पूरी तरह तेरे आधीन नहीं है, तबतक यह नहीं कहा जा सकता कि सच्चा ऐक्य सिद्ध हो गया है । अभीतक भयंकर मिश्रण है जिसमें कोई व्यवस्था या प्रकाश नहीं है-क्योंकि वह तत्त्व, वह लहर एक जगत् है, अव्यवस्था और अंधकार का जगत्? उसी तरह जैसे जड़- भौतिक जगत् के अंदर समस्त पृथ्वी, जैसे समस्त विश्व के अंदर जड़- भौतिक जगत् ।
३ दिसंबर १९१२
पिछली रात मुझे तेरे पथ-प्रदर्शन के प्रति विश्वासपूर्ण समर्पण की प्रभाव- शीलता का अनुभव हुआ । जब यह जरूरी हो कि कोई चीज जानी जाये तो हम उसे जान लेते हैं और मन तेरे प्रकाश के प्रति जितना अधिक निश्चेष्ट हो, अभिव्यक्ति उतनी ही अधिक स्पष्ट और अधिक पर्याप्त होती है ।
कल तू जो कुछ मेरे अंदर बोला था, उसे मैंने सुना, मैंने चाहा कि तूने जो कुछ कहा मैं उस सारे को लिख लूं ताकि तेरा दिया हुआ सूत्र अपनी यथार्थता में गुम न हो जाये -क्योंकि अब मैं उस समय जो कहा गया था उसे दोहरा न सकूंगी । फिर मैंने सोचा कि सुरक्षित रखने का यह विचार तेरे प्रति विश्वास का अपमानजनक अभाव है, क्योंकि तू मुझे वह सब बना सकता है जो कुछ होने की मुझे जरूरत है; और उतनी मात्रा में जितनी में मेरी मनोवृत्ति तुझे मेरे ऊपर और मेरे अंदर काम करने दे, तेरी सर्वशक्तिमत्ता की कोई सीमा नहीं । यह जानना कि हर क्षण जो होना चाहिये वह निश्चित रूप से, यथासंभव पूर्णता के साथ उन सबके लिये होता हे जो तुझे हर चीज में और हर जगह देखना जानते हैं! अब और कोई भय नहीं, और कोई परेशानी नहीं, और कोई तीव्र व्यथा नहीं; पूर्ण प्रसन्नता के सिवा कुछ नहीं -च विश्वास, परम निष्कम्प शांति ।
* ३९९ ५ दिसम्बर १११२
शांति और नीरवता में शाश्वत प्रकट होते हैं, किसी चीज से, तुम अपने- आपको क्षुब्ध न होने दो तो शाश्वत अभिव्यक्त होंगे । सभी के आगे पूर्ण समानता रखो तो शाश्वत उपस्थित होंगे... हां, हमें बहुत अधिक तीव्रता न रखनी चाहिये, तुझे खोजने का बहुत अधिक प्रयास न करना चाहिये; प्रयास और तीव्रता तेरे सामने पदा बन जाते है । हमें तुझे देखने की इच्छा न करनी चाहिये क्योंकि वह एक मानसिक हलचल है जो तेरी शाश्वत उपस्थिति को धुंधला बना देती है; संपूर्ण शांति, निरभ्रता और समानता में सब कुछ तू होता है, जैसे तू ही सब कुछ है और इस पूर्णतया शुद्ध और निश्चल वातावरण में जरा-सा स्पंदन भी तेरी अभिव्यक्ति में बाधक होता है । कोई जल्दबाजी नहीं, कोई बेचैनी नहीं, कोई तनाव नहीं; तू, तेरे सिवाय कुछ भी नहीं, बिना विश्लेषण के या विषयनिष्ठता के, और तू बिना किसी संभव संदेह के उपस्थित होता है क्योंकि सब कुछ पवित्र शांति और पावन नीरवता बन जाता है ।
और यह संसार के सभी ध्यानों से ज्यादा अच्छा होता है ।
* ७ दिसंबर १११२
नीरवता में जलनेवाली ज्वाला की तरह, ऐसी सुगंध की तरह जो कांपे बिना सीधी ऊपर को उठती है, मेरा प्रेम उस बालक की तरह तेरी ओर जाता है जो तर्क नहीं करता, जो चिन्ता नहीं करता, मैं अपने- आपको तेरे सुपुद करती हूं ताकि तेरी इच्छा पूर्ण हो, कि तेरा प्रकाश अभिव्यक्त हो, तेरी शांति. विकीरित हो, तेरा प्रेम सारे जगत् को ढक ले । जब तू चाहेगा में तेरे अंदर होऊंगी, तू होऊंगी और कोई भेद- भाव न रहेगा । मैं किसी भी तरह की अभीप्सा के बिना उस धन्य घड़ी की प्रतीक्षा करती हूं । अपने- आपको अबाध गति से उसकी ओर बहने देती हूं जैसे शांत सरिता असीम सागर की ओर बहती है ।
तेरी शांति मेरे अंदर है और उस शांति में मैं शाश्वत की शांति के साथ केवल तुझे हर चीज में उपस्थित देखती हूं । * ४०० हे परम प्रभो, शाश्वत गुरु, मुझे फिर से यह अवसर प्रदान किया गया है कि तेरे पथ-प्रदर्शन में पूर्ण विश्वास की अद्वितीय प्रभावकारिता को जांच सकूं । कल तेरा प्रकाश मेरे मुख द्वारा अभिव्यक्त हुआ और उसे मेरे अंदर कोई प्रतिरोध न मिला, यंत्र इच्छुक और वश्य था और उसकी धार पैनी थी ।
हर चीज में और हर सत्ता में तू ही कर्ता है और जो तेरे इतने निकट हो कि सब क्रियाओं में बिना अपवाद के तुझे देख सके वह जान जायेगा कि हर क्रिया को आशीर्वाद में कैसे बदला जाये ।
एकमात्र महत्त्वपूर्ण चीज है सदा तेरे अंदर निवास करना, हमेशा, सदा- सर्वदा तेरे अंदर निवास करना, इन्द्रियों के भ्रमों और धोखों के परे, काम से पीछे हटकर, उससे इंकार करके या उसे अस्वीकार करके नहीं-क्योंकि यह तो व्यथा का विषैला संघर्ष है-बल्कि जो भी काम क्यों न हो, उसमें सदा- सर्वदा तुझे ही जीना; तब भ्रम तितर-बितर हो जाता है, इन्द्रियों के मिथ्यात्व लुप्त हो जाते हैं, काय-कारण के बंधन कट जाते हैं, सब कुछ तेरी शाश्वत उपस्थिति की महिमा की अभिव्यक्ति में रूपांतरित हो जाता है ।
भगवान् करे ऐसा ही हो ।
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११ दिसंबर १९१२
मैं प्रतीक्षा करती हूं, बिना उतावली के, बिना बेचैनी के, मैं एक और पर्दा फटने की और तेरे साथ अधिक पूर्ण ऐक्य की प्रतीक्षा करती हूं । मैं जानती हूं कि यह पर्दा छोटी-मोटी अपूर्णताओं, अनगिनत आसक्तियों की भरपूर राशि से बना है... । ये सब कैसे अदृश्य डोंगी? धीरे-धीरे छोटे-छोटे अनगिनत प्रयासों के परिणामस्वरूप । एक क्षण के लिये भी न चूकनेवाली जागरूकता के फल- स्वरूप या अचानक तेरे '' सर्वशक्तिमान प्रेम '' के महान् प्रकाश द्वारा? मैं नहीं जानती, मैं अपने- आपसे यह प्रश्न भी नहीं करती; मैं प्रतीक्षा करती हूं, जितनी अच्छी तरह हो सके निगरानी रखती हूं, इस विश्वास के साथ कि तेरी इच्छा के सिवा और किसी का अस्तित्व ही नहीं है, कि केवल तू ही कर्ता है और मैं यंत्र हूं और जब यंत्र अधिक पूर्ण अभिव्यक्ति के लिये तैयार हो जायेगा तो बिलकुल स्वाभाविक रूप से अभिव्यक्ति होगी । ४०१ अब भी पर्दे के पीछे से प्रसन्नता की शब्दरहित स्वर -संगति सुनायी देती है जो तेरी भव्य उपस्थिति को प्रकट करती है ।
५ फरवरी १११३
मेरे हृदय की निश्चलता में तेरी आवाज सुरीले राग की तरह सुनायी देती है और मेरे मस्तिष्क में ऐसे शब्दों में अनूदित होती है जो अपर्याप्त होते हुए भी तुझसे भरपूर हैं । और ये शब्द पृथ्वी को संबोधित करते हुए उससे कहते हैं : बेचारी दुःखी पृथ्वी, याद रख कि मैं तेरे अंदर उपस्थित हूं और आशा न छोड़ । हर प्रयास, हर दुःख, हर खुशी, हर पीड़ा, तेरे हृदय की प्रत्येक पुकार, तेरी अंतरात्मा की हर अभीप्सा, तेरी ऋतुओं का हर पुनर्नवीकरण । सब के सब, बिना अपवाद के, जो तुझे दुःखपूर्ण लगता है और जो तुझे सुखद मालूम होता है, जो तुझे कुरूप लगता है और जो तुझे सुंदर मालूम होता है, सभी तुझे निरपवाद रूप से मेरी ओर लाते हैं और मैं अनंत शांति, छायाहीन प्रकाश, पूर्ण सामंजस्य, निश्चिति, विश्राम और परम धन्यता हूं ।
सुन, हे धरित्री, उस उत्कृष्ट वाणी को सुन जो उठ रही है । सुन और नया साहस जगा ।
*
८ फरवरी १९१३
हे प्रभो, तू मेरा आश्रय और मेरा वरदान है, मेरा बल, मेरा स्वास्थ्य, मेरी आशा और मेरा साहस है । तू ही परम शांति, अमिश्रित आनंद, पूर्ण स्वच्छता है । मेरी पूरी सत्ता असीम कृतज्ञता और अनंत पूजा में तेरे आगे साष्टांग दंडवत है और वह पूजा मेरे हृदय और मेरे मन से तेरी ओर उसी तरह उठती है जैसे भारत की सुगंधित धूप का शुद्ध धुआं ।
वर दे कि मैं मनुष्यों में तेरा अग्रदूत होऊं ताकि वे सब जो तैयार हैं उस आनंद का रस ले सकें जो तू मुझे अपनी अनंत करुणा में प्रदान करता है, वर दे कि तेरी शांति धरती पर राज्य करे ।
* ४०२ १० फरवरी १११३
मेरी सत्ता तेरी ओर कृतज्ञता के साथ उठती है, इसलिये नहीं कि तू इस दुर्बल और अपूर्ण शरीर का उपयोग अपने- आपको अभिव्यक्त करने के लिये करता है बल्कि इसलिये कि तू अपने- आपको अभिव्यक्त करता है, यही भव्यताओं की भव्यता, आनंद का आनंद, चमत्कारों का चमत्कार है । जो लोग तुझे उत्साह के साथ खोजते हैं उन्हें यह समझ लेना चाहिये कि जब कभी तेरी जरूरत होती है तो तू उपस्थित रहता है; और अगर उनके अंदर यह परम श्रद्धा हो कि तुझे खोजना छोड़ दें, बल्कि तेरे लिये प्रतीक्षा करें, हर क्षण अपने- आपको सर्वांगीण रूप से तेरी सेवा में रखें जो जब कभी तेरी आवश्यकता होगी तो तू मौजूद होगा; और क्या हमारे साथ हर समय तेरी आवश्यकता नहीं होती, चाहे तेरी अभिव्यक्ति के कितने ही भिन्न और बहुधा अप्रत्याशित रूप क्यों न हों?
वर दे कि तेरी महिमा घोषित हो, वर दे कि जीवन उसके द्वारा पवित्र हो, वर दे कि वह मनुष्यों के हृदय को रूपांतरित करे, वर दे कि तेरी शांति पृथ्वी पर राज्य करे ।
*
१२ फरवरी १११३
जैसे ही किसी अभिव्यक्ति से समस्त प्रयास लुप्त हो जाते हैं, सारी चीज बहुत सरल हो जाती है, खिलते हुए फूल की तरह सरल जो बिना शोर मचाये, बिना प्रचंड इंगित के अपनी सुंदरता को प्रकट करता और सुगंध को फैलाता है । और इस सरलता में बड़ी-से-बड़ी शक्ति होती है, ऐसी शक्ति जो कम-से- कम मिश्रित होती है और कम-से-कम हानिकर प्रतिक्रियाओं को जगाती है । प्राण की शक्ति पर अविश्वास करना चाहिये, यह कार्य-पथ पर प्रलोभन देनेवाली होती है और इसमें हमेशा पिंजरे में जा गिरने का भय होता है क्योंकि इससे तुम्हें तुरंत मिलनेवाले फल का चस्का लग जाता है और काम अच्छी तरह करने की अपनी पहली आतुरता में हम अपने- आपको इस शक्ति का उपयोग करने के लिये बह जाने देते हैं । परंतु शीघ्र ही वह हमारे समस्त कर्म को उचित मार्ग से भटका देती और हम जो कुछ करते हैं उसमें भ्रम, भ्रांति और ४०३ मृत्यु का बीज बो देती है । सरलता, सरलता! तेरी उपस्थिति की शुद्धि कितनी मधुर है!...
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१३ मार्च १११३
... वर दे कि पवित्रीकरण की शुद्ध सुगंध हमेशा जलती रहे, ऊंची और ऊंची, सीधी और सीधी उठती रहे, पूर्ण सत्ता की कभी न रुकनेवाली प्रार्थना की तरह जो तेरे साथ एक होने की इच्छा करती है ताकि वह तुझे अभिव्यक्त कर सके ।
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११ मई १११३
जैसे ही मेरे ऊपर कोई भौतिक उत्तरदायित्व नहीं रहता, इन चीजों के सभी विचार मुझसे बहुत दूर भाग जाते हैं और मैं पूरी तरह और एकांत भाव से तेरे साथ, तेरी सेवा में होती हूं । तब, उस पूर्ण शांति और निरभ्रता में अपनी इच्छा को तेरी इच्छा के साथ एक करती हूं और उस पूर्ण नीरवता में मैं तेरे सत्य पर कान देती और उसकी अभिव्यक्ति को सुनती हूं । तेरी इच्छा के बारे में सचेतन होकर, अपनी इच्छा को तेरी इच्छा के साथ एक करके ही सच्ची स्वाधीनता और सर्वशक्तिमत्ता का रहस्य पाया जाता है, शक्तियों के पुनरुज्जीवन और सत्ता के रूपांतर का रहस्य पाया जाता है ।
तेरे साथ सतत और पूणॅता एक होने का अर्थ है यह आश्वासन पाना कि हम प्रत्येक बाधा को पार कर लेंगे और हर कठिनाई को जीत लेंगे - भीतर भी और बाहर भी ।
हे स्वामी, हे प्रभो, एक असीम आनंद मेरे हृदय को भरता है, मेरे सिर में से होकर खुशी के गीत अद्भुत लहरों में उमड़ रहे हैं और तेरी निश्चित विजय के पूर्ण विश्वास में मैं परम शांति और अजेय शक्ति पाती हूं । तू मेरी सत्ता को भरता है, तू उसमें जीवन-संचार करता है, तू उसके छिपे हुए स्रोतों को गति देता है, तू उसकी समझ को प्रदीप्त करता है, तू उसके जीवन को तीव्र करता है, उसके प्रेम को दसगुना बढ़ता है और मुझे इस बात का पता नहीं रहता कि यह विश्व ' मैं ' ' या ' मैं ' विश्व ', कि मेरे अंदर है या मैं तेरे ४०४ अंदर । केवल तू ही है और सब कुछ तू है; और तेरी असीम कृपा की सीरताएं जगत् को भरती और परिप्लावित कर देती हैं ।
गाओ हे देशो, गाओ हे जातियो । गाओ हे मनुष्यो । दिव्य सामंजस्य आ गया है ।
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१८ जून १११३
तेरी ओर मुड़ना । तेरे साथ एक होना, तेरे अंदर और तेरे लिये जीना परम सुख, अमिश्रित आनंद, अविकारी शांति है । यह शाश्वत में सांस लेना, अनंतता में ऊपर उड़ना, अपनी सीमाओं को अनुभव न करना, देश और काल. से बच निकलना है । मनुष्य इन वरदानों से ऐसे क्यों भागते हैं मानों वे उनसे डरते हों? सारे दुःख-दर्द का स्रोत, अज्ञान भी क्या अजीब चीज है! कैसा दैन्य-भरा है वह अंधेरा जो मनुष्यों को ठीक उस चीज से दूर रखता है जो उसके लिये सुख जायेगी और ठीक उन चीजों के आधीन रखता है जो उन्हें संघर्ष और दुःख-दर्द से निर्मित सामान्य जीवन की पीड़ादायक शैली के आधीन रखती हैं!
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२१ जुलाई १९१३
... फिर भी कितने धीरज की जरूरत है । प्रगति की अवस्थाएं कितनी अदृश्य-सी हैं! ओह! मैं तुझे अपने हृदय की गहराइयों से कैसे पुकारती हूं, हे सत्य ज्योति, परम प्रेम, दिव्य स्वामी, जो हमारे प्रकाश और हमारे जीवन का उत्स, हमारा पथ-प्रदर्शक और हमारा रक्षक, हमारी आत्मा की आत्मा, हमारे प्राण का प्राण, हमारी सत्ता का हेतु, सर्वोच्च ज्ञान, अविकारी शांति है!
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२८ नवंबर १११३
प्रकृतिस्थ निदिध्यासन की उस निश्चलता में जो और किसी भी समय की अपेक्षा पौ फटने से पहले आती है, हे हमारी सत्ता के स्वामी, मेरा विचार तेरी ओर उत्कट प्रार्थना में उठता है । ४०५ वर दे कि अब जो दिन शुरू होने को है वह धरती के लिये और मनुष्यों के लिये जरा अधिक शुद्ध प्रकाश और सच्ची शांति लाये । तेरी अभिव्यक्ति अधिक पूर्ण हो और तेरा मधुर विधान अधिक मान्यता-प्राप्त हो । कोई उच्चतर, उदात्ततर, सत्यतर वस्तु मानवजाति पर प्रकट हो । वर दे कि अधिक विशाल और गभीर प्रेम का प्रसार हो ताकि सभी पीड़ादायक व्रण स्वस्थ हो जायें और सूर्य की यह पहली किरण जो अब पृथ्वी पर प्रकट होने को है, आनंद और सामंजस्य की घोषणा करनेवाली हो, वह जीवन के सारतत्त्व में छिपी महिमामय भव्यता का प्रतीक हो ।
हे दिव्य स्वामी, वर दे कि हमारे लिये यह दिन, तेरे विधान के प्रति अधिक पूर्ण उत्सर्ग की ओर उद्घाटन हो, तेरे कर्म के प्रति अपनी अधिक सर्वांगीण भेंट हो, अपने- आपकी अधिक संपूर्ण विस्मृति, अधिक महान् आलोक, शुद्धतर प्रेम हो । वर दे कि तेरे साथ सदा-सर्वदा बढ़ते हुए सायुज्य में हम अधिकाधिक एक होते जायें ताकि हम तेरे योग्य सेवक बन सकें । हमारे अंदर से समस्त अहंकार और तुच्छ घमंड, समस्त लोभ और अंधकार को दूर कर दे ताकि तेरे दिव्य प्रेम से प्रज्वलित होकर, हम जगत् में तेरी मशालें बन सके ।
मेरे हृदय से पूर्व की सुवासित धूप की श्वेत धूम्र रेखा की तरह तेरी स्मृति में मौन भजन उठता है ।
और पूर्ण समर्पण की स्वच्छता में, उदय होते हुए इस दिन के प्रकाश में मैं तुझे प्रणाम करती हूं ।
*
२४ ह जनवरी १९१४
ओ तू, जो हमारी सत्ता की एकमात्र सद्वस्तु है, हे प्रेम के सर्वोच्च स्वामी, जीवन के उद्धारक, वर दे कि मेरे अंदर हर क्षण और हर सत्ता में तेरे सिवाय और किसी की चेतना न रहे । जब मैं पूरी तरह तेरे जीवन में नही जीती तो संतप्त होती हूं, मैं धीरे- धीरे विनाश की ओर डूबने लगती हूं; क्योंकि तू ही मेरे जीवन का एकमात्र कारण है, मेरा एकमात्र लक्ष्य और मेरा एकमात्र सहारा है । में एक भीरु पक्षी की तरह हूं जिसे अभीतक अपने पंखों पर विश्वास नहीं है, जो उड़ान भरने में सकुचाता है; वर दे कि मैं तेरे साथ निश्चित ऐक्य तक पहुंचने के लिये उड़ान भर सकूं ।
* ४०६ १ फरवरी १९१४
मैं तेरी ओर मुड़ती हूं, जो सब जगह, सबके भीतर और सबके बाहर है, जो सबका घनिष्ठ सारतत्त्व और सबसे दूर, सब ऊर्जाओं के घनीकरण का केंद्र, सचेतन व्यक्तित्वों का रचयिता है : मैं तेरी ओर मुड़ती और तुझे प्रणाम करती हूं, हे जगतों के मुक्तिदाता, और तेरे दिव्य प्रेम के साथ एकात्म होकर पृथ्वी और उसके जीवों का अवलोकन करती हूं, रूप और आकार में रखे गये इस द्रव्य की राशि को सदा नष्ट होते हुए और फिर से नया होते हुए देखती हूं, समूहों की एकत्र होती हुई राशियां बनने के साथ-ही-साथ विलीन हो जाती हैं, ऐसी सत्ताओं की राशियां जो अपने-आपको सचेतन और स्थायी व्यक्तित्व मानती हैं लेकिन जो एक श्वास की तरह क्षण- भंगुर हैं, जो सर्वदा समान या अपनी विभिन्नता में लगभग समान हैं, जो सदा उन्हीं कामनाओं, वृत्तियों और क्षधाओं को, उन्हीं अज्ञानभरी मूलों को दोहराती रहती हैं ।
लेकिन समय-समय पर तेरी परम ज्योति एक सत्ता में चमकती है और उसके द्वारा सारे जगत् पर विकीरित होती है, फिर थोडी-सी समझ, थोड़ा-सा ज्ञान, जरा-सी निःस्वार्थ श्रद्धा, शौर्य और अनुकंपा मनुष्यों के हृदयों में प्रवेश करती है, उनके मनों को रूपांतरित करती है और अस्तित्व के उस दुःखभरे और कठोर चक्र से, जिसके अंधे अज्ञान ने उन्हें अधीन कर रखा है । कुछ तत्त्वों को मुक्त करती है ।
लेकिन जो भव्यताएं पहले हो गयी हैं उनसे कितनी अधिक भव्य, कितनी अधिक अद्भुत महिमा और प्रकाश की जरूरत होगी इन सत्ताओं को उस भयंकर विपथगमन से खींचने के लिये जिसमें वे शहरों के जीवन और तथाकथित संस्कृतियों के कारण डूबी हुई हैं! कैसी दुर्जेय और साथ-ही-साथ दिव्य रूप से मधुर शक्ति की जरूरत होगी इन सभी इच्छा-शक्तियों को अपने स्वार्थपूर्ण, तुच्छ और मूर्खताभरे संतोषों के लिये कटु संघर्ष से खींच निकालने के लिये, अपने उस भंवर से बचाने के लिये जो अपनी धोखेबाज चमक के पीछे मृत्यु को छिपाकर रखता है, और फिर उन्हें तेरे विजयी सामंजस्य की ओर मोड़ने के लिये!
हे प्रभो, शाश्वत स्वामी, हमें आलोकित कर, हमारे चरणों को राह दिखा, अपने विधान की चरितार्थता का, अपने कार्य की निष्पत्ति का मार्ग दिखा ।
मैं नीरवता में तेरी आराधना करती हूं और धार्मिक एकाग्रता में तेरी वाणी सुनती हूं । ४०७ १४ फरवरी १९१४
शांति, सारी पृथ्वी पर शांति!
वर दे कि सभी सामान्य चेतना से छूट जायें और जड़- भौतिक वस्तुओं के लिये आसक्ति से मुक्ति पा लें; वर दे कि वे तेरी दिव्य उपस्थिति के ज्ञान के बारे में जाग्रत् हों, तेरी परम चेतना के साथ युक्त होकर उससे उभरनेवाली शांति के प्राचुर्य का रसास्वादन करें ।
प्रभो, तू हमारी सत्ता का सर्वोच्च स्वामी है । तेरा विधान ही हमारा विधान है और अपनी पूरी सामर्थ्य के साथ हम अपनी चेतना को तेरी शाश्वत चेतना के साथ युक्त करने के लिये अभीप्सा करते हैं ताकि हम हर क्षण, हर वस्तु में तेरे उत्कृष्ट कार्य को चरितार्थ कर सकें ।
प्रभो, हमें सभी संयोगों की चिंताओं से मुक्त कर, हमें वस्तुओं के बारे में सामान्य दृष्टिकोण से मुक्त कर । वर दे कि हम अब से केवल तेरी ही आखों से देखें और केवल तेरी ही इच्छा से कार्य करें । हमें अपने दिव्य प्रेम की जीवित मशालों में रूपांतरित कर ।
हे प्रभो, श्रद्धा और भक्ति के साथ । समस्त सत्ता के आनंद- भरे समर्पण में मैं अपने- आपको तेरे विधान की परिपूर्णता के लिये अर्पित करती हूं ।
शांति, समस्त पृथ्वी पर शांति!
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१५ फरवरी १९१४
हे तू, एकमात्र परम. सद्वस्तु, हमारे प्रकाश के प्रकाश और हमारे जीवन के जीवन, हे परम प्रेम, हे संसार के त्राता, वर दे कि मैं तेरी सतत उपस्थिति की अभिज्ञता के बारे में पूर्णतया अधिकाधिक जाग्रत् हो सकूं, वर दे कि मेरे सभी कर्म तेरे विधान का समर्थन करें । कृपा कर कि तेरी इच्छा और मेरी इच्छा के बीच कोई फर्क न रहे । मुझे मेरे मन की भ्रामक चेतना में से निकाल, मन की कपोल-कल्पनाओं के जगत् से निकाल; वर दे कि मैं अपनी चेतना को तेरी निरपेक्ष चेतना के साथ तदात्म कर सकूं, क्योंकि वह तू ही है ।
लक्ष्य को पाने के लिये मेरी इच्छा को सातत्य प्रदान कर, मुझे वह दृढ़ता, वह ऊर्जा और वह साहस प्रदान कर जो समस्त जड़ता और शिथिलता से पीछा छुडा सके । ४०८ मुझे पूर्ण निरबार्थता की शांति प्रदान कर, ऐसी शांति जो तेरी उपस्थिति का अनुभव कराये और तेरे हस्तक्षेप को प्रभावकारी बनाये, ऐसी शांति जो सदा समस्त दुर्भावना और प्रत्येक अंधकार पर विजयी हो ।
मैं अनुनय करती हूं कि मुझे ऐसा वर दे कि मेरी सत्ता तेरे साथ एकात्म हो जाये । वर दे कि मैं तेरी परम उपलब्धि की ओर पूर्णत: जाग्रत् प्रेम की ज्वाला के सिवा कुछ और न होऊं ।
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७ मार्च १९१४: '' कागामारू '' नामक जहाज पर
... आज सवेरे मेरी प्रार्थना तेरी ओर उठती है, हमेशा उसी अभीप्सा के साथ कि सभी तेरे प्रेम को जी सकें, तेरे प्रेम को ऐसी सामर्थ्य और प्रभावकारिता के साथ फैला सकें कि हमारे संपर्क से सभी पुष्ट, सुदृढ़, पुनरुज्जीवित ओर प्रकाशित अनुभव करें । जीवन को नीरोग करने की शक्ति प्राप्त करना, पीड़ा को शमित करना, शांति और अचंचल विश्वास को पैदा करना, संताप को मिटा देना ओर उसके स्थान पर एक सच्चे सुख के भाव को लाना, ऐसे सुख को, जिसकी नींव तेरे अंदर है, जो कभी मुरझाता नहीं ।...
हे प्रभो, हे अद्भुत सखा, हे सर्वशक्तिमान स्वामी, हमारी सारी सत्ता में प्रवेश कर, उसे तबतक रूपांतरित करता चल जबतक कि हमारे अंदर और हमारे द्वारा केवल तू ही जिये!
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८ मार्च १११४
इस प्रशांत सूर्योदय के सामने । जिसने मेरे अंदर की हर चीज को नीरवता और शांति में बदल दिया है, जिस क्षण मैं तेरे बारे में सचेतन हुई और मैंने जाना कि केवल तू ही मेरे अंदर जी रहा था, हे प्रभो, मुझे ऐसा लगा कि मैंने इस जहाज के सभी निवासियों को अपना लिया और उन्हें समान प्रेम के अंदर घेर लिया और यह कि इस भांति इनमें से सभी के अंदर तेरी चेतना का कुछ ४०९ अंश जागेगा । यह बहुधा नहीं होता कि मैंने तेरी दिव्य शक्ति और अपराजेय प्रकाश का इस तरह अनुभव किया हो और फिर से एक बार मेरा विश्वास संपूर्ण था और अमिश्रित था मेरा आनंदमय समर्पण ।
ओ तू, जो सभी दुःख-दर्द को दूर करता हे और सारे अज्ञान को छितरा देता है, हे तू, जो परम चिकित्सक है, तू सदा इस जहाज में, उन लोगों के हृदय में उपस्थित रह जिन्हें यह जहाज आश्रय देता है ताकि फिर एक बार तेरी महिमा अभिव्यक्त हो ।
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१ मार्च १११४
जो तेरे लिये और तेरे अंदर निवास करते है वे अपने भौतिक परिवेश, अपनी आदतों, आबो-हवा और पर्यावरण को बदल सकते हैं, लेकिन हर जगह वे एक ही वातावरण पायेंगे, वे उस वातावरण को अपने अंदर लिये रहते हैं, उस विचार में लिये रहते हैं जो सदा तेरे ऊपर लगा रहता है, उन्हें हर जगह अपना ही घर लगता है क्योंकि वे हर जगह तेरे मकान में रहते हैं । वे वस्तुओं और देशों की नवीनता, अप्रत्याशितता और सुरम्यता पर विस्मय नहीं करते क्योंकि उनके लिये हर जगह तेरी ही उपस्थिति और तेरी अपरिवर्तनशील भव्यता सबमें अभिव्यक्त है जो उन्हें कभी नहीं छोड़ती, वह रेत के छोटे-से-छोटे कण में भी अभिव्यक्त है । सारी धरती तेरे यशोगीत गा रही है; अंधकार, दुःख- दैन्य, अज्ञान के बावजूद । इन सबमें से होकर हम तेरे प्रेम की ही महिमा देखते हैं और हम हर जगह, बिना रुके, उसके साथ सायुज्य बनाये रख सकते हैं ।
हे प्रभो, मेरे मधुर स्वामी, मैं इस जहाज पर सबका सतत अनुभव करती हूं, मुझे लगता है कि यह शांति का एक अद्भुत आवास है । एक मंदिर है जो तेरे मान में अवचेतन निष्कियता की लहरों पर तेरे रहा है, उस निसकरियत पर जिसे हमें जीतना हे और तेरी दिव्य उपस्थिति की चेतना की ओर जगाना है ।
धन्य है वह दिवस जब मैं तुझे जान पायी, हे अवर्णनीय शाश्वतता ।
सब दिनों में वह दिन धन्य होगा जब अंतत: पृथ्वी जागकर तुझे जान पायेगी और केवल तेरे लिये ही जियेगी ।
* ४१० २५ प मार्च १११४
हमेशा की तरह मौन और अदृष्ट किंतु सर्वशक्तिमान? तेरी क्रिया ने अपने- आपको अनुभूत करवाया है और इन आत्माओं के अंदर जो इतनी बंद मालूम होती थीं, तेरी दिव्य ज्योति का बोध जाग उठा है । मैं भली-भांति जानती थी कि तेरी उपस्थिति के लिये आसान करना कभी व्यर्थ नहीं हो सकता स्टेट यदि हम अपने हृदय की सचाई के साथ तेरे साथ सायुज्य स्थापित करें । फिर चाहे वह किसी भी अंग के साथ क्यों न हो, शरीर के साथ हो या मानव समुदाय के साथ, यह अंग अपने अज्ञान के बावजूद, अपनी निश्चेतना को पूरी तरह रूपांतरित पाता है । लेकिन जब किसी एक या कई तत्वों में सचेतन रूपांतर होता है, जब वह ज्वाला, जो राख के नीचे सुलगती रहती है, समस्त सत्ता को आलोकित करती हुई अचानक प्रज्वलित हो उठती है, तब हम आनंद के साथ तेरे राजकीय कार्य को नमन करते है और एक बार फिर तेरी अपराजेय शक्ति के साक्षी होते हैं और आशा कर सकते हैं कि मानवजाति में अन्य सुखों के साथ एक और सच्चे सुख की संभावना जोड़ दी गयी है ।
हे प्रभो, मेरे अंदर से एक तीव्र कृतज्ञता-प्रकाशन तेरी ओर ऊपर उठ रहा है जो इस दुःख-भरी मानवजाति की कृतज्ञता प्रकट करता है, जिसे तू प्रकाशित करता और रूपांतरित करता और महान् बनाता है और जिसे तू ज्ञान की शांति प्रदान करता है ।
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१० अप्रैल १११४
अचानक पर्दा फट गया, क्षितिज प्रकट हो गया - और स्पष्ट अंतर्दशन के आगे मेरी सारी सत्ता ने अपने- आपको कृतज्ञता के महान् उद्गार के साथ तेरे चरणों में डाल दिया । फिर भी इस गहरे और संपूर्ण आनंद के बावजूद सब कुछ शाश्वत की शांति के साथ अचंचल और शांत था ।
ऐसा लगता है कि मेरी कोई सीमाएं नहीं रही, अब शरीर का बोध नहीं रहा, कोई संवेदन, कोई भावना, कोई विचार नहीं रहे-एक स्पष्ट, शुद्ध, शांत विशालता प्रेम और प्रकाश के साथ व्याप्त हो गयी और जो कुछ है वह अकथनीय आनंद के साथ भर गया और मुझे लगता है कि अब वही मैं हूं और यह '' मैं '' पहले के स्वार्थी, सीमित '' अहं '' से इतना कम मिलता है कि मैं ४११ यह नहीं कह सकती कि यह '' मैं '' है या '' तू '', हे प्रभो, हमारी नियतियों के उत्कृष्ट स्वामी ।
ऐसा लगता है मानों सब कुछ ऊर्जा, साहस, शक्ति, इच्छा, अनंत मधुरता, अतुलनीय अनुकंपा हो... ।
बल्कि इन पिछले कुछ दिनों की अपेक्षा ज्यादा जोर से । अतीत मर गया है और मानों नवजीवन की किरणों के नीचे गाड़ दिया गया है । इस पुस्तक के कुछ पिछले पृष्ठ पढ़ते हुए मैंने जो आखिरी नजर पीछे की ओर डाली, उसने मुझे इस मृत्यु के बारे में विश्वास दिला दिया है, बहुत बड़े भार से हल्की होकर, हे मेरे दिव्य स्वामी, मैं अपने- आपको एक बालक की सारी सरलता और सारी नग्नता के साथ तेरे आगे प्रस्तुत करती हूं... और फिर भी एकमात्र चीज जिसका मैं अनुभव करती हूं वह है अचंचल और शुद्ध विशालता... ।
प्रभो, तूने मेरी प्रार्थना का उत्तर दे दिया है, तूने मुझे वह वरदान दिया है जो मैंने तुझसे मांगा था । ' अहं ' गायब हो गया है, अब केवल एक विनीत यंत्र रह गया है जिसे तेरी सेवा में प्रस्तुत किया गया है, जो तेरी अनंत और शाश्वत किरणों के केंद्रीकरण और अभिव्यक्ति का केंद्र है; तूने मेरे जीवन को लेकर अपना बना लिया है; तूने मेरी इच्छा को लेकर अपनी इच्छा के साथ युक्त कर लिया है; तूने मेरे प्रेम को लेकर अपने प्रेम के साथ तदात्म कर लिया है; तूने मेरे विचार को लेकर उसके स्थान पर अपनी निरपेक्ष चेतना को बीठा दिया है ।
विस्मित शरीर मूक, समर्पणपूर्ण आराधना में धूलि में अपना मस्तक नवाता है ।
अपनी निर्विकार शांति की भव्यता में तेरे सिवा और किसी का अस्तित्व नहीं है ।
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१७ अप्रैल १९१४
हे प्रभो, हे सर्वशक्तिमान् स्वामी, एकमात्र सद्वस्तु, वर दे कि कोई भी भूल, कोई भी अंधकार, कोई भी घातक अज्ञान मेरे हृदय में और मेरे विचार में न घुस सके ।
कर्म में व्यक्तित्व ही तेरी इच्छा और तेरी शक्तियों का अनिवार्य और अपरिहार्य माध्यम है । ४१२ व्यक्तित्व जितना अधिक सबल, जितना अधिक जटिल, शक्तिशाली और व्यष्टि- भावापत्र और सचेतन हो, यंत्र उतने ही शक्तिशाली और उपयोगी ढंग से सेवा कर सकता है । लेकिन ठीक अपने स्वभाव के कारण ही व्यक्तित्व आसानी से अपनी पृथक् सत्ता के घातक भ्रम की ओर खिंच सकता है और थोडा-थोडा करके तेरे और जिसपर तू क्रिया करना चाहता है उसके बीच एक पर्दा बन सकता है । आरंभ में, अभिव्यक्ति के समय नहीं बल्कि वापिसी के संचार में पर्दा बन जाता है; यानी निष्ठावान् सेवक की तरह एक माध्यम होने की जगह जो तेरे पास ठीक वह चीज वापिस ले आये जो तेरी अपनी है-तेरी क्रिया के बदले में भेजी गयी शक्तियां -व्यक्तित्व के अंदर यह वृत्ति होती है कि शक्तियों के एक अंश को इस विचार के साथ अपने पास रख ले : '' यह या वह कार्य तो मैंने ही किया है, मुझे धन्यवाद मिल रहा है... । '' विषैले भ्रम । अंधकारमय मिथ्यात्व, अब तुम्हारा पता चल गया है और तुम्हारा भंडा फूट गया है । यह कम? के फल को क्षय करनेवाला हानिकर नासूर है जो उसके सभी परिणामों को मिथ्या कर देता है ।
हे प्रभो, मेरे मधुर स्वामी, एकमात्र सद्वस्तु, ' अहं ' की इस भावना को दूर कर दे । अब मैं समझ गयी हूं कि जबतक अभिव्यक्त जगत् रहेगा तबतक तेरी अभिव्यक्ति के लिये ' अहं ' की जरूरत रहेगी । ' अहं ' को लुप्त कर देना, कम करना या निर्बल बना देना तुझे अंश में या समग्र में अभिव्यक्ति के साधन से वंचित करना होगा । लेकिन जिस चीज को मूलत: और निश्चित रूप से दबा देना चाहिये वह है पृथक् ' अहं ' का भ्रामक विचार, भ्रामक भाव, भ्रामक संवेदन । हमें किसी भी क्षण, किसी भी परिस्थिति में यह न भूलना चाहिये कि तेरे बाहर हमारे ' अहं ' की कोई वास्तविकता नहीं है ।
हे मेरे मधुर स्वामी । मेरे दिव्य प्रभो, मेरे हृदय से इस भ्रम को उखाड़ फेंक ताकि तेरा सेवक शुद्ध और निष्ठावान् बन सके और जो कुछ तेरा अपना देय है उसे निष्ठापूवक और समग्र रूप से तेरे पास वापिस ला सके । वर दे कि मैं नीरवता में ध्यान करके इस परम अज्ञान को समझ सकूं और उसे हमेशा के लिये भगा दु । मेरे हृदय से छाया को खदेड़ दे और वर दे कि तेरा प्रकाश वहां पर राज्य करे और उसका निर्विरोध राजाधिराज बने ।
* १२ मई १९१४
मुझे अधिकाधिक ऐसा लगता है कि हम क्रियाशीलता के उन कालों में से एक में हैं जिनमें अतीत के प्रयासों का फल प्रकट हो जाता है, -एक ऐसे काल में जब इस विधान के बारे में सचेतन होने का अवकाश पाये बिना ही तेरे विधान के अनुसार उस परिमाण में काम करते हैं जिसमें वह हमारी सत्ता का एकाधिपति नियन्ता है ।
आज सवेरे एक हुत अनुभूति में से गहराई से गहराई में गुजरते हुए, मैं हमेशा की तरह, फिर एक बार अपनी चेतना को तेरी चेतना के साथ तदात्म कर पायी और तब तेरे सिवाय और कहीं भी जीवन-यापन नहीं कर रही थी -वस्तुत: केवल तू ही जी रहा था लेकिन तुरंत ही तेरी इच्छा ने मेरी चेतना को बाहर की ओर खींच लिया, उस काम की ओर जो किया जाना है और तूने मुझसे कहा, '' वह यंत्र बन जिसकी मुझे जरूरत है । '' और क्या यह अंतिम त्याग नहीं है? तेरे साथ तादास्थ्य को त्यागना, तेरे और अपने बीच विभेद न करने के मधुर और पवित्र आनंद को त्यागना, हर क्षण यह जानने के आनंद को त्यागना, केवल बुद्धि से ही नहीं बल्कि सर्वांगीण अनुभूति से कि तू ही एकमात्र सद्वस्तु है और बाकी सब केवल आभास और भ्रांति है? इसमें कोई संदेह नहीं कि बाहरी सत्ता को आज्ञाकारी यंत्र होना चाहिये जिसे उस इच्छा के बारे में सचेतन होने की भी जरूरत नहीं जो उसे चलाती है; लेकिन मुझे हमेशा लगभग पूरी तरह उस यंत्र के साथ तदात्म होने की क्या जरूरत है और ' अहं ' तेरे अंदर पूरी तरह विलीन क्यों न हो जाये और तेरी पूर्ण और निरपेक्ष चेतना क्यों न जिये?
मैं पूछती तो हूं पर मुझे इसकी कोई चिंता नहीं है । मैं जानती हूं कि सब कुछ तेरी इच्छा के अनुसार है और शुद्ध पूजा- भाव से मैं अपने- आपको तेरी इच्छा के आगे खुशी के साथ समर्पित करती हूं । हे प्रभो, तू मुझे जो बनाना चाहेगा वही बनूंगी, चाहे सचेतन हो या निश्चेतन, इस शरीर की तरह सीधा-सा यंत्र या तेरी तरह परम ज्ञान । ओह कैसा मधुर और शांत होता है वह आनंद जब हम कह सकें, '' सब कुछ अच्छा है '' और उन सब तत्त्वों के द्वारा, जो अपने- आपको उस संचार के लिये अर्पण करें । जगत् में तुझे कार्य करते हुए अनुभव कर सकें ।
तू सबका एकाधिपति स्वामी है, तू ही अगम्य, अज्ञेय, शाश्वत और उदात्ता सद्वस्तु है ।
४१४ हे अद्भुत ऐक्य, मैं तेरे अंदर लुप्त हो रही हूं ।
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२१ मई १९१४ हे
प्रभो, अचल आनंद, समस्त अभिव्यक्ति के परे, शाश्वत की निर्विकार नीरवता में मैं तेरे अंदर हूं । जो तेरी शक्ति और अद्भुत ज्योति में से भौतिक पदार्थ के अणुओं को केंद्र और वास्तविकता बनाता है उसमें मैं तुझे पाती हूं; इस तरह तेरी उपस्थिति के बाहर गये बिना मैं तेरी परम चेतना में लुप्त हो सकती हूं या तुझे अपनी सत्ता के प्रदीप्त कणों में देख सकती हूं । और अभी के लिये यही तेरा जीवन की प्रचुरता और तेरा आलोक है ।
मैं तुझे देखती हूं, मैं स्वयं तू हूं और इन दो ध्रुवों के बीच मेरा तीव्र प्रेम तेरी ओर अभीप्सा करता है ।
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२२ मई १९१४
जब हम सत्ता की सभी अवस्थाओं में और जीवन के सभी लोकों में क्रमश: यह पहचान लेते हैं कि क्या वास्तविक है और क्या अवास्तविक, जब हम एकमात्र सद्वस्तु की पूर्ण और सर्वांगीण निश्चिति पर पहुंच जाते हैं तो हमें अपनी दृष्टि इस परम चेतना की ऊंचाइयों से व्यष्टिगत समष्टि की ओर मोडनी चाहिये जो पृथ्वी पर तेरी अभिव्यक्ति के लिये तात्कालिक. यंत्र का काम देती र्ह और उसके अंदर तेरे, अपने एकमात्र वास्तविक अस्तित्व के सिवा और कुछ न देखना चाहिये । इस तरह इस समष्टि का प्रत्येक अणु तेरे उदात्त प्रभाव को ग्रहण करने के लिये जाग्रत् होगा । अज्ञान और अंधकार न केवल सत्ता की केंद्रीय चेतना से बल्कि उसकी बाह्यतम अभिव्यक्ति की प्रणाली से भी गायब हो जायेंगे । रूपांतर के इस श्रम की पूर्णता और परिपूर्ति से ही तेरी उपस्थिति, तेरे प्रकाश और तेरे प्रेम की प्रचुरता को अभिव्यक्ति हो सकती है ।
प्रभो, तू मुझे यह सत्य सदा अधिकाधिक स्पष्ट रूप से समझाता है; मुझे एक-एक कदम करके उस मार्ग पर आगे चला । छोटे-से-छोटे परमाणु तक मेरी सारी सत्ता तेरी उपस्थिति के पूर्ण ज्ञान के लिये और उसके साथ परम एकत्व के लिये अभीप्सा करती है । ऐसी कृपा कर कि सब बाधाएं गायब हो जायें,
४१५ अंग- अंग में तेरा दिव्य ज्ञान अज्ञान के अंधेरे का स्थान ले ले । जैसे तूने केंद्रीय चेतना को, सत्ता के अंदर इच्छा को आलोकित किया है, उसी तरह इस बाह्यतम पदार्थ को भी आलोकित कर । ऐसी कृपा कर कि समस्त व्यक्तित्व अपने प्रथम मूल और सारतत्त्व से लेकर अंतिम प्रक्षेप और अधिकतम जड़- भौतिक शरीर तक, सब तेरी एकमात्र सद्वस्तु की त अभिव्यक्ति और सिद्धि में एक हो जाये ।
विश्व में तेरे जीवन, तेरे प्रकाश, तेरे प्रेम के सिवा कुछ नहीं है ।
ऐसी कृपा कर कि हर चीज तेरे सत्य के ज्ञान द्वारा समुज्ज्वल और रूपांतरित हो जाये ।
तेरा दिव्य प्रेम मेरी सत्ता को परिप्लावित कर रहा है; तेरा परम प्रकाश हर कोषाणु में चमक रहा है; हर चीज उल्लसित हो रही है क्योंकि वह तुझे जानती है और तेरे साथ एक है ।
२६ मई १९१४
सतह पर तूफान है; समुद्र विक्षुब्ध है, लहरें टकराती हैं और एक-दूसरे पर उछलती हैं और बहुत शोर मचाती हुई टूट पड़ती हैं । लेकिन सारे समय इस उन्मत्त जल के नीचे मुस्कुराते हुए विशाल विस्तार शांत और अचंचल रहते हैं । वे सतह की हलचल को एक अनिवार्य क्रिया के रूप में देखते हैं; क्योंकि यदि दिव्य प्रकाश को पूरी तरह अभिव्यक्त करने योग्य बनना है तो जड़ पदार्थ को तेजी से मथना बहुत जरूरी है । व्यथित आभास के पीछे । संघर्ष और संताप के द्वंद्व के पीछे चेतना अपने स्थान पर दृढ़ बनी रहती है और बाहरी सत्ता की सभी गतिविधियों का अवलोकन करती जाती है । वह केवल दिशा और स्थिति को ठीक करने के लिये हस्तक्षेप करती है ताकि लीला बहुत अधिक नाटकीय न हो जाये । यह हस्तक्षेप कभी झ होता है कभी कठोर, कभी संशयात्मक होता है तो कभी व्यवस्था के लिये आदेश या विडंबना, वह हमेशा प्रबल, सौम्य, शांत और मुस्कुराती हुई शुभेच्छा से भरा होता है ।
नीरवता में मैंने तेरे अनंत और शाश्वत आनंद को देखा ।
तब जो अभीतक छाया ओर संघर्ष में है, उससे तेरी ओर एक मृदु प्रार्थना उठी : हे मधुर स्वामी, हे प्रकाश और शुद्धि के परम दाता, वर दे कि सभी पदार्थ और सभी क्रियाएं तेरे दिव्य प्रेम और तेरी उत्कृष्टतम प्रशांतता की सतत अभिव्यक्ति के सिवा ओर कुछ न हों... ।
४१६ और मेरे हृदय में तेरी उच्चतम भव्यता की प्रसन्नता का गान है ।
* २७ अगस्त १९१४
हे प्रभो, दिव्य प्रेम, शक्तिशाली प्रेम, अनंत, अथाह प्रेम में, प्रत्येक क्रिया में, सत्ता के सभी लोकों के अंदर रहने के लिये मैं तुझे पुकारती हूं । वर दे कि मैं इस दिव्य प्रेम, शक्तिशाली प्रेम, अनंत अथाह प्रेम में, प्रत्येक क्रिया में, सत्ता के सभी लोकों में घुल जाऊं! मुझे उस उद्बुद्ध वेदी में बदल दे ताकि सारी पृथ्वी का वातावरण उसकी ज्वाला से शुद्ध हो जाये ।
ओह, अनंत रूप से तेरा प्रेम बन जाना... ।
*
३१ अगस्त १११४
इस विकट अव्यवस्था और भयंकर विनाश में एक महान् कार्य देखा जा सकता है, एक आवश्यक परिश्रम जो पृथ्वी को एक नयी बुवाई के लिये तैयार कर रहा है, जो अन्न की अद्भुत बालों में विकसित होगी और जगत् को एक नयी जाति की उत्कृष्ट पैदावार प्रदान करेगी... । प्रत्यक्ष दशन स्पष्ट और यथार्थ है, तेरे दिव्य विधान की योजना इतने स्पष्ट रूप से अंकित है कि शांति वापिस आ गयी है और उसने अपने- आपको कार्यकर्ताओं के हृदयों में प्रतिष्ठित कर लिया है । अब कोई संदेह, हिचकिचाहटें नहीं हैं और न ही कोई संताप या अधीरता बची है । कर्म की महान् सीधी रेखा है जो शाश्वत काल से सबके बावजूद, सबके विरुद्ध, सभी विरोधी आभासों और काल्पनिक चक्करों के बावजूद अपने- आपको संपादित करती जाती है । ये भौतिक व्यक्तित्व, अनंत संभवन में ये अग्राह्य क्षण जानते हैं कि वे मानवजाति को अचूक रूप से, अनिवार्य परिणामों की चिंता किये बिना, चाहे आभासी निष्कर्ष कैसे भी हों, एक कदम आगे बढ़ा देंगे । वे अपने- आपको तेरे साथ युक्त कर देते हैं, हे शाश्वत स्वामी, वे अपने- आपको तेरे साथ युक्त कर देते हैं, हे विश्व जननी, और इस दोहरे तदात्म में, एक उस तत् के साथ जो परे है और दूसरा उसके साथ जो समस्त अभिव्यक्ति है, वे पूर्ण निश्चिति के अनंत आनंद का रस लेते हैं |
४१७ शांति, सारे जगत् में शांति... । युद्ध एक आभास है विक्षोभ एक भ्रम है शांति उपस्थित है, निर्विकार शांति ।
जननी, मधुर मां जो मैं ही हूं, त एक साथ विनाशक और स्रष्ट्री है ।
सारा विश्व अपने असंख्य जीवन के साथ तेरे वक्ष में निवास करता है और तू अपनी विशालता में उसके छोटे -से-छोटे परमाणु में निवास करती है ।
और तेरी अनंतता की अभीप्सा उसकी ओर मुड़ती है जो अभिव्यक्त नहीं है और उससे अधिकाधिक पूर्णता और अधिकाधिक समग्रता की अभिव्यक्ति के लिये पुकार करती है ।
सब कुछ एक तिहरी, सूक्ष्म दृष्टिवाली समग्र चेतना में एक ही है, व्यष्टि, वैश्व और अनंत ।
*
१ सितंबर १९१४
हे दिव्य जननी, कैसे उत्साह के साथ, कैसे तीव्र प्रेम के साथ मैं तेरी गहनतम चेतना में आयी, तेरे उच्चतन प्रेम और पूर्ण सुख-शांति में आयी और तेरी भुजाओं में दुबक गयी और मैंने तेरे साथ इतनी तीव्रता के साथ प्रेम किया कि मैं पूरी तरह से तू बन गयी । तब हमारे मूक आनंद की नीरवता में और भी अधिक गभीर गहराइयों में से एक आवाज उठी और उसने कहा, '' उन लोगों की ओर मुडो जिन्हें तुम्हारे प्रेम की जरूरत है । '' चेतना के सभी स्तर प्रकट हुए, सभी उत्तरोत्तर जगत् प्रकट हुए । कुछ भव्य और प्रकाशमान, सुव्यवस्थित और स्पष्ट थे; उनका ज्ञान उज्ज्वल था, अभिव्यक्ति सामंजस्यपूर्ण और विशाल थी, उनकी इच्छा समर्थ और अपराजेय थी । तब जगत् अधिकाधिक अस्तव्यस्तता की बहुलता में अंधकारमय होने लगे, ' ऊर्जा ' उग्र हो गयी और जड़ भौतिक जगत् अंधेरा और दुःखमय हो गया । और जब हमने अपने अनंत प्रेम में दुःख और अज्ञान के जगत् के भीषण कष्ट को पूरी तरह देखा, जब हमने अपने बच्चों को निराशाजनक संघर्ष में गुंथा हुआ देखा, जिन्हें ऐसी ऊर्जाओं ने, जो अपने पथ से भ्रष्ट हो गयी थीं, एक-दूसरे पर पटक दिया था, तो हमने तीव्र इच्छा की कि भागवत प्रेम का प्रकाश, एक रूपांतरकारी शक्ति इन उद्विग्न तत्त्वों के केंद्र में अभिव्यक्त हो । और फिर यह कि इच्छा और भी
४१८ समर्थ और प्रभावकारी हो, हे अचिन्स्य परम प्रभो, हम तेरी ओर मुंडे और तेरी सहायता के लिये याचना की । और तब अज्ञात की अथाह गहराइयों में से एक उत्कृष्ट और दुर्जेय उत्तर आया और हम जान गये कि पृथ्वी '' बचा ली गयी है ।
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२५ प सितंबर १९१४
हे दिव्य और पूजनीया मां, तेरी सहायता हो तो कौन-सी चीज असंभव हे? उपलब्धि का मुहूर्त निकट है और तूने हमें अपनी सहायता का आश्वासन दिया है कि हम पूर्ण रूप से परम इच्छा को पूरा कर सकें ।
तूने हमें अचिंत्य वास्तविकताओं और भौतिक जगत् की सापेक्षताओं के बीच उपयुक्त माध्यम के रूप में स्वीकार कर लिया है और हमारे बीच तेरी सतत उपस्थिति तेरे सक्रिय सहयोग का चिह्न है ।
प्रभु ने इच्छा की है और तू कार्यान्वित कर रही है : पृथ्वी पर एक नये प्रकाश का उदय होगा । एक नया जगत् जन्म लेगा और जिन चीजों के लिये वचन दिया गया था वे पूरी की जायेंगी ।
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२८ सितंबर १९१४
मेरी लेखनी तेरी उपस्थिति के गीत गाने के लिये मूक है, हे प्रभो, तू एक राजा की न्याई है जिसने अपने राज्य पर पूरा अधिकार कर लिया है । तू हर प्रदेश को व्यवस्थित करता, श्रेणीबद्ध करता, विकसित करता और बढ़ाता हुआ उपस्थित है । तू उन्हें जगाता है जो सोये हुए हैं । जो तमs में डूब रहे थे उन्हें तू सक्रिय बनाता है । तू सबको एक सामंजस्य में ढाल रहा है । एक दिन आयेगा जब सामंजस्य प्राप्त हो जायेगा और समस्त देश स्वयं अपने जीवन द्वारा तेरी वाणी और तेरी अभिव्यक्ति का वाहक होगा।
लेकिन इस बीच, मेरी लेखनी तेरे गुणगान करने के लिये मूक है ।
* ४१९ ३०सितंवर १९१४
ओ तू, परम प्रेम, जिसे मैंने कभी कोई और नाम नहीं दिया परंतु जो पूरी तरह से मेरी सत्ता का सारतत्त्व है, जिसे मैं शरीर के छोटे-से-छोटे परमाणु और साथ ही अनंत विश्व और उसके परे भी जीवित और स्पंदित होते हुए अनुभव करती हूं, तू जो हर श्वास में सांस लेता है, सभी क्रिया-कलापों के हृदय में धड़कता है, जो कुछ सद्भावनापूर्ण है उस सबमें से विकीरित होता है और सारे कष्टों के पीछे छिपा हुआ है, तू जिसके लिये मैं एक असीम पूजा को हृदय में संजोये रखती हूं जो हमेशा अधिकाधिक तीव्र होती जाती है, ऐसा वर दे कि मैं अधिकाधिक विवेकसहित यह अनुभव कर सकूं कि मैं पूरी तरह तू ही हूं ।
और तू, हे प्रभो, जो इन सबका योग और उससे कहीं अधिक है, हे सर्वश्रेष्ठ स्वामी, हमारे विचार की पराकाष्ठा, जो हमारे लिये अज्ञात की देहली पर खड़ा है, उस अचित्त्व में से किसी नयी भव्यता को उठा, उच्चतर और अधिक पूर्ण उपलब्धि की संभावनाओं को उठा ताकि तेरा कार्य चरितार्थ हो और विश्व परम तादास्थ्य और परम अभिव्यक्ति की ओर एक कदम और आगे बढ़ा सके ।
और अब मेरी लेखनी मूक हो जाती है और में नीरवता में तेरी आराधना करता हूं ।
* ५ अलुबर १९१४
तेरे ध्यान की निश्चल-नीरवता में, हे दिव्य स्वामी, प्रकृति फिर से सुदृढ़ और संतुलित हो उठी है । व्यक्तित्व के समस्त तत्त्व को पार कर लिया गया है और अब वह तेरी अनंतता में डुबकी लगाये हुए हे जो सभी क्षेत्रों में, बिना अस्तव्यस्तता या विक्षोभ के एकत्व को चरितार्थ होने देती है । जो स्थायी रहता है, जो प्रगति करता है और जो शाश्वत है उनका सम्मिलित सामंजस्य, थोड़ा- थोड़ा करके हमेशा अधिक जटिल, अधिक विस्तारित और अधिक उच्च संतुलन में चरितार्थ होता है । और जीवन के इन तीनों प्रकारों का परस्पर आदान-प्रदान अभिव्यक्ति की बहुलता की अनुमति देता है ।
बहुत-से लोग तुझे इस घड़ी संताप और अनिश्चिति में ढूंढते हैं । वर दे कि मैं उनके और तेरे बीच माध्यम बन '' ताकि तेरा प्रकाश उन्हें आलोकित
४२० कर, तेरी शांति उन्हें संतुष्ट करे । मेरी सत्ता अब तेरी क्रिया के लिये एक सहारे का बिंदु और तेरी चेतना का एक केंद्र है । अब सीमाएं कहां हैं, अवरोध किधर भाग गये? तू अपने राज्य का अधिराट् स्वामी है ।
* ७ अकूबर १९१४
कृपा कर कि सारी पृथ्वी पर प्रकाश उंडेला जाये और शांति प्रत्येक हृदय में निवास करे... । प्रायः सभी केवल जड़-भौतिक, भारी, तामसिक, पुराणपंथी, धुंधले जीवन को जानते हैं; उनकी प्राणिक शक्तियां अपने जीवन के भौतिक रूप से इतनी ज्यादा बंधी होती हैं कि अगर उन्हें शरीर के बाहर स्वयं अपने ऊपर ही छोड़ दिया जाये तब भी वे पूरी तरह उन भौतिक संयोगों में तल्लीन रहती हैं जो तब भी बहुत परेशान करनेवाले और पीड़ादायक होते हैं... । जिन लोगों में मानसिक जीवन जाग जाता है वे बेचैन, संतप्त, उत्तेजित, स्वेच्छाचारी और निरंकुश होते हैं । ऐसे पुनर्नवीकरण और रूपांतरों के भंवर में फंसकर, जिनके वे स्वप्न लिया करते हैं, वे हर चीज को नष्ट करने के लिये तैयार होते हैं जब कि उन्हें किसी ऐसी नींव का पता नहीं होता जिसपर निर्माण करना है, उनका प्रकाश केवल चाधियानेवाली कौंधों से बना होता है, इससे वे अस्तव्यस्तता को समाप्त करने में सहायक होने की जगह उसे और भी बढ़ा देते हैं ।
सभी के अंदर तेरे उच्चतम ध्यान की अपरिवर्तनशील शांति और तेरी अक्षर शाश्वतता की शांत दृष्टि का अभाव है ।
इस व्यष्टिगत सत्ता की अनंत कृतज्ञता के साथ जिसे तूने सर्वोत्कृष्ट कृपा प्रदान की है, मैं तुझसे याचना करती हूं, हे प्रभो, कि वर्तमान उथल-पुथल के पर्दे में, इस अत्यधिक अस्तव्यस्तता के ठीक हृदय में चमत्कार क्रियान्वित हो जाये और तेरी परम प्रशांतता और विशुद्ध अपरिवर्तनशील प्रकाश का विधान सबकी दृष्टि के लिये दृश्य हो जाये और एक ऐसी मानवजाति में पृथ्वी पर राज्य करे जो अंततः तेरी दिव्य चेतना के प्रति जाग जाये ।
हे मधुर स्वामी, तूने मेरी प्रार्थना सुन ली है, तू मेरी पुकार का उत्तर देगा । * ४२१ १४ अकूबर १९१४
दिव्य जननी, तू हमारे साथ है; प्रत्येक दिन तू मुझे आश्वासन देती है और अधिकाधिक पूर्ण और अधिकाधिक सतत रूप से विकसित होते हुए तदात्म के साथ घनिष्ठ रूप में युक्त हम विश्व के प्रभु की ओर तथा जो परे है उसकी ओर बड़ी अभीप्सा के साथ नये प्रकाश के लिये मुड़ते हैं । समस्त पृथ्वी एक रोगी बालक की तरह हमारी भुजाओं में है । जिसके लिये उसकी दुर्बलता के कारण ही हमें विशेष स्नेह है- और उसका रोगमुक्त होना जरूरी है । शाश्वत संभवनों की विशालता में झूलते हुए, क्योंकि स्वयं हम ही वे संभवन हैं, हम नीरवता और प्रसन्नता में अविचल निश्चल नीरवता की शाश्वतता का ध्यान करते हैं जहां सब कुछ उस पूर्ण चेतना और अविकारी सत्ता में उपलब्ध है जो परे विद्यमान अज्ञान का चमत्कारिक द्वार है ।
तब पर्दा फट जाता है, अवर्णनीय महिमा का उद्घाटन हो जाता है और अनिर्वाच्य भव्यता से ओत-प्रोत होकर हम संसार को शुभ समाचार देने के लिये उसकी ओर लौटते हैं ।
प्रभो, तूने मुझे अनंत सुख प्रदान किया है । कौन-सी सत्ता में, कौन-सी परिस्थिति में इतनी शक्ति है जो मुझसे उसे छीन सके?
*
२५ अकूबर १९१४
हे प्रभो, तेरे प्रति मेरी अभीप्सा ने एक सामंजस्य, पूरी तरह खिले हुए और सुगंध से भरे सुंदर गुलाब का रूप ले लिया है । मैं समर्पण की मुद्रा में दोनों बाँहें फैलाकर उसे तेरी ओर बढ़ा रही हूं और मैं तुझसे याचना करती हूं : अगर मेरी समझ सीमित है तो उसे विस्तृत कर; अगर मेरा ध्यान धुंधला है तो उसे आलोकित कर; अगर मेरा हृदय उत्साह से खाली है तो उसे प्रज्ज्वलित कर; अगर मेरा प्रेम तुच्छ है तो उसे तीव्र बना; अगर मेरी भावनाएं अज्ञान-भरी और अहंकारपूर्ण हैं तो उन्हें सत्य के अंदर पूरी चेतना प्रदान कर और जो '' मैं '' यह सब मांग रही हूं वह हे प्रभो, एक छोटा-सा व्यक्तित्व नहीं है जो हज़ारों में खोया हुआ है । यह तो समूची पृथ्वी उत्साह- भरी गति में तेरे प्रति अभीप्सा कर रही है ।
४२२ मेरे ध्यान को पूर्ण नीरवता में सब कुछ अनंतता में विस्तृत हो जाता है और उस नीरवता की पूर्ण शांति में तू अपने प्रकाश की देदीप्यमान महिमा में प्रकट होता है ।
*
८ नवंबर १९१४
हे प्रभो, तेरे प्रकाश को परनाते लिये हम तेरा आस्थान करते हैं । हमारे अंदर वह शक्ति जगा जो तुझे प्रकट करे ।
सत्ता में सब कुछ मरुभूमि के शव-कक्ष की तरह मूक है; लेकिन छाया के हृदय में । नीरवता के वक्ष में ऐसा दीपक जल रहा है जिसे कभी बुझाया नहीं जा सकता और जल रही है तुझे जानने और पूर्णतया तुझे ज़ीने की तीव्र अभीप्सा ।
दिनों के बाद रातें आती हैं, अथक रूप से नयी उषाएं पिछली उषाओं के बाद आती हैं, लेकिन हमेशा सुगंधित ज्वाला ऊपर उठती रहती है जिसे कोई आधी-तूफान कंपा नहीं सकता । वह ऊंची और ऊंची उठती जाती है और एक दिन अभीतक बंद तिजोरी तक जा पहुंचती है, वह हमारे ऐक्य का विरोध करनेवाला अंतिम अवरोध है । ज्वाला इतनी शुद्ध, इतनी सीधी, इतनी गर्वीली है कि अवरोध अचानक लुप्त हो जाता है ।
तब तू अपनी समस्त भव्यता में, अपनी अनंत महिमा की चौधियानेवाली शक्ति में प्रकट होता है; तेरे संपर्क से ज्वाला ऐसे प्रकाश-स्तंभ में बदल जाती है जो हमशा के लिये छायाओं को मार भगाता है ।
और महामंत्र उछल पड़ता है जो परम अंतःप्रकाश है ।
*
१५ फरवरी १११५
हे सत्य के प्रभो । मैंने गहरे उत्साह के साथ तीन बार तेरी अभिव्यक्ति का आह्वान करते हुए तेरी याचना की ।
और फिर, हमेशा की तरह सारी सत्ता ने पूर्ण समर्पण किया, उस क्षण चेतना ने मानसिक, प्राणिक और भौतिक व्यक्तिगत सत्ता को ' तरह? से
४२३ ढका हुआ देखा, और यह सत्ता तेरे आगे प्रणत थी, उसका ललाट धरती को छू रहा था, धूल में धूल मिल गयी और उसने चिल्लाकर तुझसे कहा, '' हे प्रभो, धूल से बनी हुई यह सत्ता तेरे आगे प्रणत है और प्रार्थना कर रही है कि वह सत्य की अग्नि में भस्म हो जाये ताकि आगे से वह केवल तुझे ही अभिव्यक्त कर सके । '' तब तूने उससे कहा, '' उठ, जो कुछ धूल है उस सबसे तू शुद्ध है । '' और अचानक एक झटके में सारी धूल उससे झड़ गयी, उस लबादे की भांति जो जमीन पर गिर जाता है और सत्ता सीधी, हमेशा की तरह सारगर्भित परंतु चौधियानेवाली प्रकाश की तरह देदीप्यमान हो उठी ।
*
३ मार्च १९१५ (कामो मारू जहाज पर)
एकांत, कठोर, तीव्र एकांत और हमेशा ऐसा तीव्र अनुभव मानों मैं अंधकार के नरक में सिर के बल फेंक दी गयी होऊं! अपने जीवन के किसी भी क्षण, किसी भी परिस्थिति में मैंने ऐसा अनुभव नहीं किया कि में ऐसे प्रतिवेश में रही होऊं जहां सब कुछ, जिसे मैं सच्चा मानती हूं उसके एकदम विरुद्ध हो, जो कुछ मेरे जीवन का सारतत्त्व है उसके एकदम विपरीत हो । कभी-कभी जब अनुभव और विरोध बहुत तीव्र हो जाते हैं तो मैं अपने संपूर्ण समर्पण को उदासी का रंग लेने से नहीं रोक सकती, और अंतस्थ प्रभु के साथ शांत और मौन वार्तालाप क्षण भर के लिये एक आस्थान में रूपांतरित हो जाता है जो लगभग चिरौरी करता है, ''हे प्रभो, ऐसा मैंने क्या किया है कि तूने मुझे इस निराशाजनक रात्रि में फेंक दिया है?'' लेकिन तुरंत अभीप्सा उठती है, जो पहले से भी तीव्र होती है, '' इस सत्ता को समस्त दुर्बलता से बचा, इसे अपने कार्य के लिये आज्ञा-परायण और स्पष्ट दृष्टिवाला यंत्र बना, वह काय चाहे कुछ क्यों न हो । ''...
* ४२४ ७ मार्च १९१५
बीत गया, मधुर मानसिक नीरवता का समय बीत गया है जिसके द्वारा गहरी इच्छा को अपने- आपको सर्वशक्तिमान् सत्य में प्रकट करते हुए देखा जा सकता था । अब इच्छा और अधिक नहीं दिखायी देती और मन फिर से अनिवार्यत: सक्रिय है; वह विश्लेषण करता, वर्गीकरण करता, निर्णय करता, चुनाव करता, व्यक्तित्व पर जो भी चीज आरोपित की जाती है उस पर सतत रूप से रूपांतरकारी प्रतिनिधि की तरह काम करता है । वह इतना पर्याप्त विस्तृत हो गया है कि अनंत रूप में विस्तृत और जटिल जगत् के साथ, धरती की सभी चीजों की तरह प्रकाश और छाया के मिले-जूले जगत् के साथ संपर्क में रह सके । मैं हर आध्यात्मिक सुख से निर्वासित हूं और हे प्रभो, तेरे द्वारा आरोपित सभी अग्नि-परीक्षाओं में से यह निश्चित रूप से सबसे बढ़कर पीड़ा- दायक है, और सबसे बढ़कर तेरी इच्छा का पूरी तरह निवर्तन जो पूरी अस्वीकृति का चिह्न मालूम होता है । परित्याग का बढ़ता हुआ भाव प्रबल है और इस तरह परित्यक्त बाह्य चेतना को असाध्य दुःख के आक्रमण से बचाने के लिये अथक श्रद्धा के सारे उत्साह की जरूरत होती है... ।
लेकिन वह निराश होने से इंकार करती है, वह यह मानने से इंकार करती है कि यह दुर्भाग्य ऐसा है जिसे सुधारा नहीं जा सकता, वह तेरे पूर्ण आनंद के श्वास के फिर से प्रवेश करने के लिये विनय के साथ धुंधले और छिपे हुए प्रयास और संघर्ष में प्रतीक्षा करती है । और शायद उसकी विनीत और प्रच्छन्न विजयों में से हर एक धरती के लिये लायी गयी सच्ची सहायता है... ।
काश, इस बाहरी चेतना में से निश्चित रूप से बाहर निकल कर दिव्य चेतना में शरण ले सकना संभव होता! लेकिन उसके लिये तूने मना कर दिया है, अभी और हमेशा के लिये तू इसका निषेध करता है । जगत् से बाहर की कोई उड़ान नहीं! उसके अंधकार और उसकी कुरूपता का भार अंत तक ढोना होगा, चाहे ऐसा क्यों न लगे कि समस्त भागवत सहायता खींच ली गयी है । मुझे रात्रि के वक्ष में रहना होगा और दिक्-सूचक के बिना, संकेत-दीप और आंतरिक पथ-प्रदर्शक के बिना आगे चलते चले जाना होगा ।
मैं तेरी दया के लिये याचना भी नहीं करूंगी क्योंकि तू मेरे लिये जो चाहता है वही मैं भी चाहती हूं । मेरी सारी ऊर्जा केवल आगे बढ़ने के लिये, सदा कदम-कदम आगे बढ़ने के लिये, अंधकार को घनता और रास्ते के अवरोधों के -० आगे बढ़ने के लिये तत्पर है और हे प्रभो, जो कुछ भी
४२५ आ जाये, उत्साहपूर्ण और अपरिवर्तनशील प्रेम के साथ तेरे का स्वागत होगा । अगर तू यंत्र को अपनी सेवा के अयोग्य भी पाये तब भी यंत्र स्वयं अपना नहीं है तेरा ही है; तू चाहे इसे नष्ट कर दे या महिमान्वित कर दे; इसका अस्तित्व स्वयं अपने लिये नहिं है, यह किसी चीज की इच्छा नहीं करता, तेरे बिना यह कुछ भी नहीं कर सकता ।
*
८ मार्च, १११५
अधिकतर भाग में स्थिति अचंचल और गहरी उदासीनता की है; सत्ता को न तो कामना का अनुभव होता है न अरुचि का, न उत्साह का न अवसाद का, न खुशी का न दुःख का । वह जीवन को एक ऐसे दृश्य के रूप में देखती है जिसमें उसकी भूमिका बहुत छोटी-सी है; वह अपनी क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं । संधषों और शक्तियों को ऐसी चीजों के रूप में देखती है जो उसके जीवन की हैं और उसके तुच्छ व्यक्तित्व के हर पार्श्व से उमड़ती हैं और फिर भी उस व्यक्तित्व के लिये बिलकुल विजातीय और दूरवर्ती हैं ।
लेकिन समय-समय पर एक बड़ा निःश्वास गुजरता है, दुःख का महान् निःश्वास, संतप्त एकाकीपन का, आध्यात्मिक निराश्रयता का निःश्वास, -हम कह सकते हैं कि यह भगवान् द्वारा परित्यक्त पृथ्वी की निराशा- भरी पुकार है । यह एक हूक है जो उतनी ही नीरव हे जितनी कूर, एक विनम्र पीड़ा जिसमें विद्रोह नहीं है, जिसे उसमें से बच निकलने की, उसे दूर रखने की कामना नहीं है और जो अनंत मधुरता से भरी है जिसमें कष्ट और सुख-शांति का गठ- बंधन है । कोई ऐसी चीज जो अनंत रूप से विस्तृत । महान् और गभीर है, इतनी ज्यादा महान् और गभीर है कि वह मनुष्यों की समझ के बाहर है-कोई ऐसी चीज जो अपने अंदर ' आगामी कल ' का बीज लिये हुए है... ।
* ४२६ २६ नवंबर१९१५
सारी चेतना दिव्य निदिध्यासन मैं निमग्न हो गयी है और पूरी सत्ता ने परम और वृहत् सुख-शांति का आनंद लिया ।
फिर भौतिक शरीर, पहले तो अपने निम्नतर अंगों में और उसके बाद अपनी समस्त सत्ता में एक प्रकार की पवित्र सिहरन से आक्रांत हो गया जिस सिहरन ने सभी व्यक्तिगत सीमाओं को थोड़ा- थोड़ा करके अत्यंत जड़ भौतिक संवेदनों तक से झाडू फेंका । सत्ता उत्तरोत्तर विशालता में बढ़ती गयी । वह विधिवत् हर अवरोध को तोड़ती, हर बाधा को चकनाचूर करती जाती थी ताकि वह उस शक्ति और सामथ्य को अपने अंदर समा सके और अभिव्यक्त कर सके जो बिना रुके विशालता और तीव्रता में बढ़ती जाती है । यह कोषाणुओं का उत्तरोत्तर विस्तार था, यहांतक कि समस्त पृथ्वी के साथ आ तादात्म्य हो गया । जाग्रत् चेतना का शरीर था पार्थिव गोला जो सामंजस्य के साथ वायवीय आकाश में घूम रहा था । और चेतना जानती थी कि उसका गोलाकार शरीर इस तरह से वैछ सत्ता की भुजाओं में घूम रहा था और उसने अपने- आपको दे दिया, उसने अपने- आपको शांतिमय आनंद के आनंदातिरेक में छोड़ दिया, फिर उसने अनुभव किया कि उसका शरीर विश्व के शरीर में आत्मसात् होकर एक हो गया; चेतना वैश्व चेतना बन गयी जो अपनी संपुणता में अचंचल थी, अपनी आंतरिक जटिलता में अनंत रूप में गतिशील थी । तीव्र अभीप्सा और आ समर्पण में विश्व की चेतना भगवान् की ओर उछली और उसने निर्मल प्रकाश के वैभव में कांतिमय सत्ता को अनेक सिरोंवाले सर्प के ऊपर सीधा खड़ा हुआ देखा जिसका शरीर विश्व के चारों ओर अगणित रूप में कुंडलित था । उस सत्ता ने विजय के शाश्वत संकेत में एक ही साथ, एक ही समय में सर्प और उससे निकलनेवाली सृष्टि का सृजन किया; सर्प के ऊपर सीधे खड़े होकर वह अपनी समस्त विजयी शक्ति के साथ उसको वश में किये हुए थी और उसी संकेत ने, जिससे उसने विश्व को लपेटनेवाले सर्प को कुचल दिया था, उसे शाश्वत जन्म दिया । तब चेतना यह सत्ता बन गयी और उसने देखा कि फिर एक बार उसका रूप बदल रहा है; वह किसी ऐसी चीज में आत्मसात् कर ली गयी जो अब रूप न रह गयी थी फिर भी सभी रूपों को अपने अंदर समाये हुए थी; कोई ऐसी चीज जो निर्विकार है और देखती है, जो चक्षु है, साक्षी है । और वह जिसे देखती है वह होती है । तब रूप का अंतिम अवशेष गायब हो गया और स्वयं वह चेतना अनिर्वचनीय अवाव्य में आत्मसात हो गयी ।
४२७ व्यक्तिगत शरीर की चेतना की ओर लोटना बहुत धीरे-धीरे प्रकाश, शाकी सुख-शांति तथा आराधना की सतत तथा अपरिवर्तनशील भव्यता में उत्तरोत्तर क्रमों में हुआ, परंतु हुआ फिर से वैश्व और पार्थिव रूपों में से गुजरे बिना सीधा और वह मानों सीधा-सादा शारीरिक रूप परम और शाश्वत साक्षी का तात्कालिक आच्छादन बन गया जिसमें कोई साधन या मध्यस्थ न था ।१
*
२६ दिसम्बर १९१६
तू मुझे नीरवता में जो शब्द सुनाता है वह हमेशा मधुर और उत्साह- वर्धक होता है, हे प्रभो । लेकिन मैं नहीं देख पाती कि यह यंत्र किस कारण उस कृपा के योग्य है जो तू उसे प्रदान कर रहा है या तू उससे जिसकी आशा करता है, वह उसकी योग्यता कैसे प्राप्त करेगा । उसके अंदर सब कुछ इतना छोटा, दुर्बल और सामान्य प्रतीत होता है, इस महान् भूमिका को स्वीकार करने के लिये उसे जो होना चाहिये उसकी तुलना में वह तीव्रता, शक्ति और प्राचुर्य से इतना रहित मालूम होता है । लेकिन मैं जानती हूं कि जो मन सोचता है उसका कोई महत्त्व नहीं । मन अपने- आप भी यह जानता है और वह निष्क्रिय रहकर तेरी आज्ञा के कार्यान्वित होने की प्रतीक्षा करता है ।
तू मुझे आज्ञा देता है कि बिना रुके प्रयास करती चलूं और मैं ऐसे अदम्य उत्साह की चाह करती हूं जो हर कठिनाई पर विजय पा सके । लेकिन तूने मेरे हृदय में ऐसी मुस्कुराती हुई शांति रख दी है कि अब मुझे यह भी पता नहीं कि प्रयास कैसे किया जाये । मेरे अंदर चीजों, क्षमताएं और क्रियाशीलताएं ऐसे विकसित होती है जैसे फूल खिलते हैं, सहज रूप में और बिना प्रयास के, आनंद में, होने के आनंद में, बढ़ने के आनंद में और तुझे अभिव्यक्त करने के
' यह माताजी का एक पत्र है जिसे उन्होंने श्रीअरविन्द को भेजा था । श्रीअरविन्द ने ३ १- १२ - १११५ को यह उत्तर दिया :
तुमने जिस अनुभूति का वर्णन किया है वह वास्तविक अथ में वैदिक. है यद्यपि ऐसी नहीं जिसे अपने- आपको वैदिक कहनेवाले आधुनिक योग-संप्रदाय स्वीकार कर सकें । यह वेद और पुराण की '' पृथ्वी '' का दिव्य तत्त्व के साथ मिलन है; यह ऐसी पृथ्वी है जिसे हमारी पृथ्वी के ऊपर माना जाता है यानी ऐसी भौतिक सत्ता और चेतना जिसके आभास मात्र हैं जगत् और शरीर । लेकिन आधुनिक योग भगवान् के साथ ग भौतिक के मिलन की बात को मुश्किल से ही स्वीकार कर सकते हैं ।
४२८ आनंद में, फिर चाहे तुझे अभिव्यक्त करने का तरीका कैसा भी क्यों न हो । अगर संघर्ष है भी तो वह इतना कोमल और सरल है कि उसे यह नाम नहीं दिया जा सकता । लेकिन इतने महान् प्रेम को अपने अंदर सामने के लिये यह हृदय कितना छोटा है! और यह प्राण और यह शरीर इसे वितरित करने की शक्ति को संभालने के लिये कितने दुर्बल हैं! इस भांति तूने मुझे अद्भुत मार्ग की देहली पर खड़ा कर दिया है, लेकिन क्या मेरे चरणों में इतना बल होगा कि इस पर बढ़ सकें?... लेकिन तू मुझे उत्तर देता है कि मेरा काम है उड़ान भरना और यह मेरी भूल होगी कि मैं चलने की इच्छा करूं... । हे प्रभो, तेरी अनुकंपा कितना अनंत है! फिर एक बार तूने मुझे अपनी सर्वशक्तिमान् भुजाओं में लेकर अपने अथाह हृदय में झुलाया है और मुझसे कहा है, '' अपने- आपको जरा भी यातना न दे, बच्चे की तरह विश्वस्त रह : क्या तू मेरे कार्य के लिये मेरा ही निश्चित स्फटिक रूप नहीं है?''
*
२७ दिसंबर १९१६
हे मेरे परम प्रिय स्वामी, मेरा हृदय तेरे आगे झुका हुआ है, मेरी भुजाएं तेरी ओर फैली हुई हैं और तुझसे याचना करती हैं कि इस सारी सत्ता को अपने श्रेष्ठ प्रेम से प्रज्ज्वलित कर दे ताकि वह वहां से सारे जगत् पर विकीरित हो सके । मेरे वक्षस्थल में मेरा हृदय पूरी तरह खुला हुआ है, मेरा हृदय खुला हुआ और तेरी ओर मुंडा हुआ है, वह खुला हुआ और खाली हे ताकि तू उसे अपने दिव्य प्रेम से भर दे; वह तेरे सिवा हर चीज से खाली है और तेरी उपस्थिति उसे पूरा-पूरा भर देती है और फिर भी खाली रखती है, क्योंकि वह अपने अंदर अभिव्यक्त जगत् को अनंत विविधता को भी समा सकता है... ।
हे प्रभो, मेरी भुजाएं अनुनय-विनय में तेरी ओर केली हुई हैं, मेरा हृदय पूरी तरह तेरी ओर खुला हुआ है ताकि तू उसे अपने अनंत प्रेम का जलाशय बना सके ।
'' सभी चीजों में, सब जगह और सभी सत्ताओं में मुझसे प्रेम कर '' यह था तेरा उत्तर । मैं तेरे आगे साष्टांग प्रणत होकर तुझसे याचना करती हूं कि मुझे वह शक्ति प्रदान कर । ४२९ २९ दिसंबर १११६
हे मेरे मधुर स्वामी, मुझे अपने प्रेम का यंत्र बनना सीखा ।
*
३० मार्च १९१७
अपने लिये कोई विचार न करने में एक राजोचित भव्यता है । आवश्यकताएं होने का अथ है दुर्बलता को प्रस्थापित करना । किसी चीज के लिये दावा करने का अर्थ है यह प्रमाणित करना कि वह चीज हमारे पास नहीं है । कामना करने का अर्थ है असमर्थ होना; यह अपनी सीमाओं को स्वीकार करना और उनपर विजय पाने में अपनी असमर्थता स्वीकार करना है । चाहे समुचित गर्व की दृष्टि से ही देखा जाये तो मनुष्य के अंदर इतनी कुलीनता तो होनी ही चाहिये कि वह अपनी कामनाओं का त्याग करे । जीवन या परम चेतना से, जो उसे अनुप्राणित करती है, अपने लिये कुछ मांगना कितना अपमानजनक है! हमारे लिये कितना अपमानजनक है और उसके प्रति कितना अज्ञानमय अपराध है! क्योंकि सब कुछ हमारी पहुंच में है, केवल हमारी सत्ता की अहंकारमयी सीमाएं हमें समस्त विश्व का पूरी तरह और ठोस रूप में उस तरह आनंद लेने से रोकती हैं जिस तरह हम अपने शरीर और उसके इद-प्तीर्द की चीजों पर अधिकार रखते हैं ।...
३१ मार्च १९१७
हर बार जब कोई हृदय तेरे दिव्य आस के स्पर्श से उछल पड़ता है तो ऐसा लगता है कि पृथ्वी पर थोडी और सुंदरता उत्पन्न हो गयी है, हवा एक मधुर सुगंध से सुवासित हो गयी है और सब कुछ अधिक मैत्रीपूर्ण हो गया है ।
समस्त अस्तित्व के प्रभो, तेरी शक्ति कितनी महान् है कि तेरे आनंद का एक परमाणु इतने अधिक अंधकार को मिटाने, इतने अधिक दुखों को दूर करने के लिये काफी है और तेरी महानता की एक किरण अत्यंत मंद कंकड़ों को चमका सकती और काली से काली चेतना को भी आलोकित कर सकती है! ४३० तूने मेरे ऊपर अपनी कृपाओं के ढेर लगा दिये हैं; तूने मेरे लिये बहुत- से रहस्यों के पर्दे उठा दिये हैं, तूने मुझे बहुत-सी अप्रत्याशित और अनपेक्षित खुशियों का आस्वादन कराया है, लेकिन तेरी कोई कृपा उस कृपा की बराबरी नहीं कर सकती जो तू मुझे उस समय प्रदान करता है जब तेरे दिव्य श्वास के स्पर्श से कोई हृदय उछल पड़ता है ।
इन धन्य घड़ियों में धरती आनंद के गीत गाती है, वनस्पतियां आनंद से रोमांचित हो उठती हैं, पवन प्रकाश से कंपायमान हो जाता है, वृक्ष अपनी तीव्रतम प्रार्थना स्वर्ग की ओर उठाते हैं, चिड़ियों का चहकना भजन बन जाता है, सागर-तरंगें प्रेम से आलोड़ित होती हैं, बच्चों की मुस्कान अनंत के बारे में कहती है और मनुष्यों की आत्माएं उनकी आखों में दिखायी देने लगती हैं ।
कह दे, क्या तू मुझे वह अद्भुत शक्ति प्रदान करेगा जो प्रत्याशी हृदयों में इस उषा को जन्म दे सके, जो मनुष्यों की चेतना को तेरी उत्कृष्ट उपस्थिति के प्रति जगा सके और इस रिक्त और दुःख- भरे जगत् में तेरे सच्चे स्वर्ग को थोड़ा-सा जगा दे? इस अद्भुत उपहार की बराबरी कौन-सी खुशी, कौन-सी समृद्धि, कौन-सी पार्थिव शक्तियां कर सकती हैं!
हे प्रभो, मैंने कभी तुझसे व्यर्थ में अनुनय-विनय नहीं की है क्योंकि जो तेरे साथ बोलता है वह मेरे अंदर तू ही है ।
तू उर्वर बनानेवाली वृष्टि के रूप में एक-एक बूंद करके अपने सर्वशक्तिमान् प्रेम की जीवंत और मुक्त करनेवाली ज्वाला बरसने देता है । जब शाश्वत ज्योति की ये बूंदें कोमलता के साथ अंधेरे अज्ञान के हमारे इस जगत् पर बरसती हैं तो हम कह सकते हैं कि निराशाजनक अंधेरे आकाश से धरती पर एक-एक करके सुनहरे तारों की वर्षा हो रही है ।
इस चिरनवीन चमत्कार के आगे सब मूक भक्ति में घुटने टेके हुए हैं ।
*
७ अप्रैल १९१७
एक गहरी एकाग्रता ने मुझे पकड़ लिया है और मैंने देखा कि मैं एक चेरी के फूल के साथ अपने- आपको तदात्म कर रही थी और उसके द्वारा चेरी 'के सभी फूलों के साथ, और जैसे-जैसे मैं चेतना की गहराई में एक नीली-सी शक्ति-धारा के पीछे-पीछे उतरती गयी, मैं अपने- आप अचानक चेरी का वह वृक्ष बन गयी जो पूजा के फूलों से लदी हुई अपनी असंख्य शाखाओं को
४३१ अनेक बाहुओं की तरह आकाश की ओर फैला रहा था । तब मैंने स्पष्ट रूप में यह वाक्य सुना :
'' तूने अपने- आपको चेरी के पेडों की आत्मा के साथ एक कर लिया है ताकि तू भली-भांति देख सके कि स्वयं भगवान् ही स्वग के प्रति इस पुष्पमय प्रार्थना की भेंट चढ़ा रहे हैं । ''
जब मैंने यह लिखा तो सब कुछ मिट गया; लेकिन अब उस चेरी के पेड़ का रक्त मेरी रंगों में बह रहा है और उसके साथ बहती है अतुलनीय शक्ति और शांति । मनुष्य-शरीर और एक पेड़ के शरीर में क्या अंतर है? सचमुच कोई अंतर नहीं : जो चेतना इन दोनों को अनुप्राणित करती है वह अभिन्न रूप से एक ही है ।
तब चेरी के वृक्ष ने मेरे कानों में फुसफुसा कर कहा : '' वसंत के रोगों का इलाज चेरी के फूलों में हे ।
*
२८ अप्रैल १९१७
हे मेरे दिव्य स्वामी, जो आज की रात अपनी पूरी दीप्तिमान भव्यता में मेरे आगे प्रकट हुआ है, तू क्षण भर में इस सत्ता को पूर्णतया शुद्ध, प्रकाशमान पारभासी और सचेतन बना सकता है । तू इसे इसके अंतिम काले धब्बों से मुक्त कर सकता है, इसे इसकी अंतिम पसंदों से छुडा सकता है । तू कर सकता है... लेकिन क्या तूने आज रात यह कर ही नहीं दिया जब वह तेरे दिव्य निस्राव से और अनिर्वचनीय प्रकाश से भिदा हुआ था? हो सकता है... क्योंकि मेरे अंदर एक अतिमानवीय बल है जो संपूर्णतः: अचंचलता और विशालता से भरा हुआ है । वर दे कि मैं इस शिखर पर से गिरने न पाऊं; वर दे कि शांति हमेशा मेरी सत्ता के स्वामी के रूप में राज्य करे, केवल मेरी गहराइयों में ही नहीं जहां वह लंबे समय से राजाधिराज रही है, बल्कि मेरी निम्नतम बाहरी क्रियाओं में भी, मेरे हृदय के छोटे-से-छोटे अंतरालों और मेरे कमी में भी ।
हे प्रभो, सत्ताओं के मुक्तिदाता, मैं तुझे प्रणाम करती हूं ।
'' लो, ये रहे फूल और आशीर्वाद! यह है दिव्य प्रेम की मुस्कान! इसमें कोई पसंद और नापसंद नहीं है । यह सभी की ओर उदार प्रवाह में उमड़ती है और कभी अपने? उपहारों को वापिस नहीं लेती । ''
४३२ शाश्वत मां परमानंद की मुद्रा में बांहें फैलाये हुए जगत् पर निरंतर अपनी शुद्धतम प्रेम की ओस बरसा रही है!
*
टोकियो, २४ सितंबर १९१७
तूने मुझे कठोर अनुशासन के आधीन कर दिया है; एक-एक डंडा करके मैं उस सीढ़ी पर चढ़ी हूं जो तुझतक ले जाती है और आरोहण के शिखर पर तूने मुझे अपने साथ तदात्म के पूर्ण आनंद का रसास्वादन कराया है । और तब तेरी आज्ञा का पालन करते हुए एक के बाद एक डंडे को पार करती हुई मैं बाह्य क्रियाओं और चेतना की बाहरी अवस्थाओं तक उतर आयी और फिर से मैंने इन लोकों के सम्पर्क में प्रवेश किया जिन्हें मैं तुझे खोजने के लिये पीछे छोड़ गयी थी । और अब जब कि मैं सीढ़ी के निचले डंडे तक आ पहुंची हूं, सब कुछ मेरे अंदर और मेरे चारों ओर ऐसा मंद, ऐसी मामूली और उदासीन मालूम होता है कि मैं कुछ भी नहीं समझ पाती... ।
तब फिर तू मुझसे किस चीज की आशा रखता है, और क्या लाभ है इस धीमी लंबी तैयारी का यदि इस सबका परिणाम अंत में वही होता हो जिसे अधिकतर मनुष्य बिना किसी अनुशासन के पा लेते हैं?
यह कैसे संभव हो सकता है कि वह सब देख लेने के बाद जो मैंने देख लिया है, जिसका मैंने अनुभव किया है, जब मुझे तेरे ज्ञान के पवित्रतम मंदिर की ओर तेरे सायुज्य के पास तक ले जाया जा चुका है, फिर भी तूने मुझे ऐसी साधारण परिस्थितियों में, ऐसा मामूली-सा उपकरण बना दिया है? सचमुच, हे प्रभो, तेरे उद्देश्य अथाह और मेरी समझ के बाहर हैं... ।
जब तूने मेरे हृदय में अपनी च सुख-शांति का शुद्ध हीरा रख दिया है, फिर तू यह कैसे सह सकता है कि उसकी सतह उन छायाओं को प्रतिबिंबित करे जो बाहर से आती हैं और तूने मुझे शांति की जो निधि प्रदान की है उसके बारे में संदेह तक नहीं होने पाता और तब वह प्रभावहीन-सी प्रतीत होने लगती है । सचमुच यह सब एक रहस्य है और मेरी समझ को चकूरा देता है ।
जब तूने मुझे इतनी बड़ी आंतरिक नीरवता प्रदान की है तो तू मेरी जिस्वा को इतना सक्रिय और विचारों को व्यर्थ की बातों में इतना व्यस्त क्यों रहने देता है? क्यों?... मैं अनंत कालतक ऐसे प्रश्न करती रह सकती हूं और ' संभावना तो यही है कि वे हमेशा बेकार ही हों... ।
४३३ मुझे बस तेरी आज्ञा के आगे सिर झुकाना और बिना एक शब्द भी बोले अपनी परिस्थिति को स्वीकार करना है ।
अब मैं केवल एक द्रष्टा हूं जो विश्व के ड्रेगन को अपनी अनंत कुंडलियां खोलते हुए देखता है ।
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१५ अकूबर १९१७
हे प्रभो, मैंने अपनी निराशा में पुकार कर तुझसे कहा है, और तूने मेरी पुकार का उत्तर दिया है ।
मुझे अपने जीवन की परिस्थितियों के बारे में शिकायत करने का कोई अधिकार नहीं है; क्या वे मेरे अनुरूप नहीं हैं?
चूंकि तू मुझे अपनी भव्यता की देहली तक ले गया और तूने मुझे अपने सामंजस्य का आनंद प्रदान किया, इसलिये मैंने समझ लिया कि मैं लक्ष्य तक पहुंच गयी : लेकिन सचमुच तूने अपने यंत्र को अपने प्रकाश की पूर्ण स्पष्टता में देखा और फिर से उसे जगत् की कुठाली में डाल दिया ताकि वह नये सिरे से पिघलाया और शुद्ध किया जा सके ।
इन अत्यधिक और संताप- भरी अभीप्सा की घड़ियों में मैं देखती हूं, मैं अनुभव करती हूं कि मैं चकरानेवाली तेजी से रूपांतर के मार्ग पर तेरी ओर खींच जा रही हूं और मेरी सारी सत्ता अनंत के साथ सचेतन संपर्क से स्पंदित हो रही है ।
इस तरह तू मुझे धीरज और बल देता है ताकि मैं इस नयी अग्नि-परीक्षा को पार कर सकूं ।
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२५ नवंबर ११९७
हे प्रभो, चूंकि मैंने दारुण विपत्ति के समय अपनी श्रद्धा की पूरी सच्चाई के साथ कहा था : '' तेरी इच्छा पूरी हो '', तू अपनी महिमा के परिधान में आया । मैं तेरे चरणों में साष्टांग नत हो गयी, तेरे वक्ष में मैंने अपना आश्रय पाया । तूने मेरी सत्ता को अपनी दिव्य ज्योति से भर दिया और अपने आनंद से आप्लावित कर दिया है । अपने सख्य का फिर से विश्वास दिलाया है
४३४ और मुझे अपनी सतत उपस्थिति का आश्वासन दिया है । तू वह विश्वस्त मित्र है जो कभी धोखा नहीं देता, तू शक्ति, सहारा और पथ-प्रदर्शक है । तू वह प्रकाश है जो अंधकार को बिखेर देता है, वह विजेता है जो विजय को निश्चित बनाता है । चूंकि तू उपस्थित है इसलिये सब कुछ स्पष्ट हो गया है । मेरे सुदृढ़ हृदय में अग्नि फिर से प्रज्ज्वलित हो उठी है और उसकी भव्यता चमक रही है और सारे वातावरण को प्रदीप्त और शुद्ध कर रही है... ।
तेरे लिये मेरा प्रेम, जो अभी तक दबा हुआ था, फिर से उछल पड़ा है, वह शक्तिशाली, प्रभुता-संपन्न और अप्रतिरोध्य है-उसे जिस अग्नि-परीक्षा में से निकलना पंडा है उससे वह दस गुना बइ गया है । उसने अपने एकांत में बल पाया है, सत्ता के ऊपरी तल तक उठ आने, अपने- आपको समस्त चेतना पर स्वामी के रूप में स्थापित करने का और अपनी उमड़ती हुई धारा में सब कुछ बहा ले जाने का बल पाया है... ।
तूने मुझसे कहा है : '' मैं लौट आया हूं और अब तुझे कभी न छोडूंगा । '' और मैंने तेरे वचन को माटी में सिर नवाकर स्वीकार किया है ।
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१२ जुलाई १९१८
अचानक, तेरे आगे मेरा सारा घमंड झड़ गया । मैं समझ गयी कि तेरी उपस्थिति में अपने- आप पर विजय पाने की कोशिश करना कितना व्यर्थ है, और मैं रो पडि, बहुत अधिक रोई और बिना रुके अपने जीवन के मधुरतम आंसू रोई... । हां, वे आंसू कैसे स्फूर्तिदायक, अचंचल और मधुर थे जिन्हें मैंने बिना लज्जा या संयम के तेरे आगे बहाया! क्या यह पिता की बांहों में बालक की तरह न था? लेकिन पिता भी कैसा! कैसी उदात्तता, कैसी भव्यता और समझ की कैसी विशालता! और प्रत्युत्तर में कैसी शक्ति और बहुलता! हां, मेरे आंसू पवित्र ओस की तरह थे । क्या यह इसलिये था कि मैं स्वयं अपने दुःख के लिये नहीं रोई थी? मधुर और परोपकारी आंसू, ऐसे आंसू जिन्होंने बिना किसी बाधा के मेरे हृदय को तेरे आगे खोल दिया और एक चमत्कारिक क्षण में मुझे तुझसे अलग करनेवाली अवशिष्ट सभी विम्न-बाधाओं को विलीन कर दिया ।
कुछ दिन पहले मैंने उसे जाना था, मैंने सुना था : '' अगर तू बिना छिपाये और बिना रोके मेरे आगे रो सके तो बहुत-सी चीजों बदल जायेंगी, एक बहुत
४३५ बड़ी विजय प्राप्त होगी । '' इसी कारण जब मेरे हृदय से आंसू आखों की ओर उठे तो मैं आकर तेरे आगे बैठ गयी ताकि वे भक्ति- भाव से भेंट के रूप में प्रवाहित हो सकें । और वह उत्सर्ग कितना मधुर और कितना विश्रामदायक था!
और अब जब कि मैं रो नहीं रही, मैं तेरे इतना निकट, इतना निकट अनुभव करती हूं कि मुझे खुशी से रोमांच हो रहा है ।
तुतलाते हुए मुझे अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करने दे :
मैं एक छोटे बच्चे के आनंद के साथ भी पुकार चुकी हूं, '' हे परम और एकमात्र विश्वस्त सहचर, तू जो पहले से ही वह सब जानता है जो हम तुझसे कह सकते हैं क्योंकि तू ही तो उसका स्रोत है!
'' हे परम और एकमात्र सखा, तू जो हमें स्वीकार करता है, हमसे प्रेम करता है और हमें वैसा ही समझता है जैसे कि हम हैं क्योंकि स्वयं तूने ही तो हमें ऐसा बनाया है!
'' हे परम एकमात्र पथ-प्रदर्शक, तू जो कभी हमारी उच्चतम इच्छा का प्रतिवाद नहीं करता क्योंकि उसके अंदर तू ही तो इच्छा करता है!
''तेरे सिवा कहीं और किसी ऐसे को ढूंढ़ना मूर्खता होगी जो हमारी बात सुने, समझे, हमसे प्रेम करे और हमें मार्ग दिखाये, क्योंकि तू हमेशा हमारे आसान पर तैयार रहता है और हमें कभी धोखा नहीं देता!
'' तूने मुझे पूर्ण निर्भरता के, पूर्ण संरक्षण के, बिना कुछ बचाये और बिना कोई रंग चढ़ाये, बिना किसी प्रयास या अवरोध के, सर्वांगीण रूप से समर्पण करने के सर्वोपरि आनंद का, महान् आनंद का बोध प्रदान किया है ।
'' बच्चे की तरह आनंद के साथ मैं एक ही साथ तेरे आगे रोयी और हंसी, हे मेरे परम प्रिय!''
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ओइवाके, ३ सितंबर १९१९
चूंकि मनुष्य ने उस भोजन को लेने से इंकार कर दिया जो मैंने इतने प्रेम और सावधानी से तैयार किया था, इसलिये मैंने भगवान् का आस्थान किया कि वे उसे स्वीकार कर लें ।
मेरे भगवान्? तूने मेरा निमंत्रण स्वीकार कर लिया, तू मेरी भेज पर बैठकर खाने के लिये आ गया, और मेरी तुच्छ और विनम्र भेंट के बदले तूने
४३६ मुझे अंतिम मुक्ति प्रदान की है । मेरा हृदय जो आज सवेरे तक परिताप और चिंता से इतना भारी था, मेरा सिर उत्तरदायित्व से इतना लदा था, दोनों अपने भार से मुक्त हो गये हैं । अब वे उसी तरह हल्के और प्रसन्न हैं जैसे मेरी आंतरिक सत्ता काफी समय से रही है । मेरा शरीर खुशी से तेरी ओर उसी तरह मुरकुराता है जैसे पहले मेरी आत्मा मुस्कुराती थी । और हे मेरे भगवान् निश्चय ही इसके बाद तू मेरे अंदर से इस आनंद को वापिस न खींचेगा! मेरा ख्याल है कि इस बार के लिये पाठ पर्यापत हो गया है, मैं उत्तरोत्तर मोह- निवारण की सूली पर चढ़ी हूं जो पुनरुज्जीवन प्राप्त करने के लिये काफी ऊंची है । एक समर्थ प्रेम के सिवा अतीत का कुछ भी नहीं बचा रह गया जो मुझे बालक का शुद्ध हृदय और एक देवता के विचार का हल्कापन और स्वाधीनता प्रदान करता है ।
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पांडिचेरी, २२ जून १९२०
मुझे वह आनंद प्रदान करने के बाद जो अभी अभिव्यंजनाओं के परे है, तूने मेरे लिये, हे मेरे परम प्रिय प्रभो, संघर्ष और अग्नि-परीक्षा भेजी है और इनपर भी मैं उसी तरह मुस्कुराती हूं मानों यह तेरे मूल्यवान् संदेश-वाहकों में से एक हो । पहले मैं द्वंद्व से डरती थी क्योंकि वह मेरे अंदर विद्यमान सामंजस्य और शांति के प्रेम पर आघात करता था । लेकिन हे मेरे भगवान् अब मैं खुशी से उसका स्वागत करती हूं : वह तेरे कर्म के रूपों में से .एक रूप है, कर्म के कुछ तत्त्वों को, जिन्हें अन्यथा भुला दिया जाता, उन्हें फिर से प्रकाश मैं लाने के सबसे अच्छे साधनों में से एक साधन है और वह अपने साथ बहुलता, जटिलता और शक्ति के भाव को लिये रहता है । और जैसे मैंने तुझे ज्योति विकीरित करते हुए, द्वंद्व का सूत्रपात करते हुए देखा है, उसी तरह तुझे ही मैं घटनाओं और विरोधी प्रवृत्तियों की उलझनों को सुलझाते हुए और अंत में उन सब चीजों पर विजय पाते हुए देखती हूं जो तेरी ज्योति और तेरी शक्ति को आवृत करने की कोशिश करती हैं; क्योंकि संघर्ष में से ही तेरी अधिक पूर्ण सिद्धि उद्भूत होनी चाहिये ।
* ४३७ २४ नवंबर १९३१
हे मेरे प्रभो, मेरे मधुर स्वामी, तेरे कार्य की परिपूरित के लिये मैंने जड़- पदार्थ की अथाह गहराइयों में डुबकी लगायी है, मैंने अपनी उंगली से मिथ्यात्व और निश्चेतना की विभीषिका को छुआ है, मैं विस्मृति और चरम अंधकार के आसन तक जा पहुंची । परंतु मेरे हृदय में परम स्मृति थी, मेरे हृदय से ऐसी पुकार उठी जो तेरे पास तक जा पहुंच सकती थी : '' प्रभो, प्रभो, हर जगह तेरे शत्रु विजयी होते दिखते हैं, मिथ्यात्व जगत् का राजा है; तेरे बिना जीवन मृत्यु है, सतत नरक है; संदेह ने आशा का स्थान हड़प लिया है और विद्रोह ने समर्पण को धकेल दिया, श्रद्धा चूक गयी है, कृतज्ञता का जन्म तक नहीं हुआ; अंध आवेशों, हत्यारी वृत्तियों और अपराधी दुर्बलता ने तेरे प्रेम के मधुर विधान को ढक दिया और उसका गला खोंट दिया है । प्रभो, क्या तू अपने शत्रुओं को हावी होने देगा, मिथ्यात्व, कुरूपता और दुःख को जितने देगा? प्रभो विजय के लिये आज्ञा दे और विजय हो जायेगी । मैं जानती हूं कि हम अयोग्य हैं, मैं जानती हूं कि जगत् अभी तक तैयार नहीं है । लेकिन तेरी कृपा पर पूर्ण श्रद्धा के साथ मैं तुझे पुकारती हूं और मैं जानती हूं कि तेरी कृपा रक्षा करेगी । ''
इस भांति मेरी प्रार्थना तेरी ओर ऊपर को दौड़ पडी; और रसातल की गहराइयों में से मैंने तुझे तेरी चमकती हुई भव्यता में देखा; तू प्रकट हुआ, और मुझसे बोला : '' साहस न खो, दृढ बन, विश्वास रख -मैं आ रहा है ।
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२३ अकूबर ११३७
(उन लोगों के लिये एक प्रार्थना जो भगवान् की सेवा करना चाहते हैं । )
हे प्रभो! हे सर्व विघ्नविनाशक! तेरी जय हो! वर दे कि हमारे अंदर की कोई भी चीज तेरे कार्य में बाधक न हो । वर दे कि कोई भी चीज तेरी अभिव्यक्ति में रुकावट न डाले । वर दे कि हर वस्तु में प्रत्येक क्षण तेरी ही इच्छा पूर्ण हो ।
हम यहां तेरे सम्मुख उपस्थित हैं ताकि हमारे अंदर, हमारी सत्ता के अंग- प्रत्यंग में, उसके प्रत्येक कार्य में, उसकी सवोच्च ऊंचाइयों से लेकर शरीर के
४३८ ध्यान कोषों तक में तेरी ही इच्छा कार्यान्वित हो ।
ऐसी कृपा कर कि हम तेरे प्रति सच रूप से और सदा के लिये एकनिष्ठ बन सकें । हम अन्य सब प्रभावों से अलग रहते हुए पूरी तरह तेरे ही प्रभाव के अधीन हो जाना चाहते हैं ।
वर दे कि हम तेरे प्रति एक गभीर और तीव्र कृतज्ञता रखना कभी न भूलें ।
कृपा कर कि प्रत्येक क्षण हमें जो अद्भुत वस्तुएं तेरी देन के रूप में मिलती हैं, उनमें से किसी का भी कभी अपव्यय न करें ।
ऐसा वर दे कि हमारे अंदर की प्रत्येक चीज तेरे कार्य में सहयोग दे और सब कुछ तेरी सिद्धि के लिये तैयार हो जाये ।
तेरी जय हो, हे परमेश्वर! हे समस्त सिद्धियों के अधीश्वर!
तू हमें अपनी विजय में सक्रिय और ज्वलंत, अखंड और अचल- अटल विश्वास प्रदान कर । ४३९
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